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(११) संसौर संगत गुरास्थानों में मनुरुप नियम से पर्याप्त ही होते है।
इस द्वितीय सूत्र की व्याख्या पवनाकार ने इस प्रकार की
भवतु सर्वेषामेतेषां पर्याप्तत्व माहारशरीरमुत्थापयतां प्रमत्ता. नामनिष्पमाहारगतषटपर्याप्तीनाम । न पर्याप्तकमोत्यापेक्षया पर्याप्तापदेशः दुश्यसत्वाविशेषतोऽसंयतसम्यग्दृष्टीनामपि भार्यातत्वस्याभावापचेः । न प सयमोत्सत्यवस्थापेक्षया तदवस्थायां प्रमत्तस्य पर्याप्तस्य पर्याप्तस्वं घटते असंयतसम्यग्दृशवपि तासगाविति नैष दोषः।
(पृष्ठ १६५) अर्थ- यदि सूत्र में बनाये गये सभी गुणस्थान बालों को पयोतपना प्राप्त होता है तो होमो। परन्तु जिनकी बाहारक शरोर सम्पन्धो छह पर्याप्तियां पूर्ण नहीं हुई है ऐसे माहारक शरोर को उत्तम करनेवाले प्रमत्त गुणस्थानवी जीवों के पर्यात. पना नहीं बन सकता है। यदि पर्याप्त नामकर्म के लय की अपेक्षा पाहारक शरीर को खत्म करने वाले प्रमत्त संयत्रों को पर्याप्तक कहा जाने सो भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि पर्याप्त कर्म का
जय प्रमच संयतों के समान पसंया सम्यग्दृष्टियों के भी निपुंस्यपर्याय माया में पाया जाता है इलिये वहां पर भी अपर्याप्तपने बमभाव मानना पड़ेगा। संयम की उत्पचिप भास्था की अपेक्षा प्रमय संयत के बाहारक को अपर्याप्त अवस्था में पर्याप्तपना बन जाता है यदि ऐसा कहा जाय सो भी