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इन्द्रिय मार्गेणा में एकेन्द्रिय द्रोन्द्रिय श्रादि इन्द्रिय सम्बन्धी शरीर रचना का कथन हैं ।
काय मार्गणा में भौहारिक वैकियिक आदि शररों का कथन है, योग मार्गणा में श्रदारिक काय योग आदारिक मिश्र काय योग, क्रियिक काय योग वैक्रियिक मिश्र काय योग आदि विवेचन द्वारा शरीर की पूर्णता और अपूर्णता के साथ योगों का कथन है। इन्हीं भिन्न २ द्रव्य शरीर के साथ गुगास्थान बताये गये हैं । परन्तु इल से आगे वेद मागणा में नो कषाय के उदय स्वरूप वेदो में गुणस्थान बताये गये हैं, वहां पर द्रव्य शशेर के वर्णन का कोई कारण नहीं है । इसी प्रकार कषाय मार्गया में कपायोदय विशिष्ट जीव में गुणम्थान बताये गये हैं, वहां पर भी द्रव्य शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है ज्ञान मार्गणा में भी क्रय शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है वहां पर भिन्न २ ज्ञानो में गुणस्थान बनाये गये हैं; इस प्रकार वेद, कषाय, ज्ञान, आदि मार्गाओं में गुणस्थानो का कथन भाव की अपेक्षा से हैं वहां पर द्रव्य शरीर का सम्बन्ध नहीं है। किन्तु आदि की चार मार्गणाओं का कथन मुख्य रूप से द्रव्य शरीर का ही विशेषक है अतः वहां तक भावछेद की कुछ भी प्रधानता नहीं है, केवल द्रव्यवेद की ही प्रधानता है ।
इसी बात का स्पष्टीकरण षट्म्मण्डागम की जीवस्थान सत्प्ररूपणा के प्रथम खण्ड धवल सिद्धांत के अनुयोग द्वारों से