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हैं। परनु कसी के पांच गुणस्शन करणानुयोग से विहित है। वे उसके बाविक बस्नुभूत है। अतः उनका विधान पखण्डागम में अवश्य है।
इस प्रकार श्रीमान पं० फूलचर जी शास्त्री महोदय के लेखों का भी समाधान हो चुका।
ये सभी भावपक्षी विद्वान व मत्र में संजद पर का रहना भावश्यक बताते हैं, भार इसी के जिय पटवण्डागम सिद्धांत के सूत्रों का अर्थ बरल रद हैं हम उनसे यह पूछने हैं कि ६३वां सूत्र जब बौदारिक काययोग मागेणा का है ना वह भावली का प्रतिपारक किस प्रकार हो सकता है ? कि भावली ती नोकषाय खोदके उदय में ही हो सकती है, वह बात वेद मागणा में सिद्ध होगी। यहां तो पौरिक काययोग मार्गणा का प्रकरण है और उसीरे साथ पर्यानि नामकर्म के समय में होने वाली षटपर्यानियों की पूर्णता का समनाय है। इस मा में मानुषी को शिक्षा में सिवा दुव्यर के भाव को मुख्य शिक्षा मा कैसे सकती है? यदि यहीं पर भावली के को मुख्य विवक्षा मान की जाय तो फिर वेदमागणा में वेदानुवाद क्या कथन होगा १ पटसएडागम पवन सिद्धांत वानुवाद प्रकरण के सूत्रों को देखिये उनमें कहीं भी "पजता पत्रता' ये पर नहीं है। इसलिये सत्र १०१ से
कर पागेसामानणामों का कथन भाषा की प्रधानता से है। दम्प शरीर के प्राण कारण योग और पर्याप्ति मुख्य पान नहीं है। परन्तु सत्र में तो बौशारिक काययोग