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रज्ञांग। इस भाषाय समन्तम स्वामी विधान से सुमि । फिर नियंत्रों के पांच गुणस्थान, नारकियों के पार गुणस्थान देवों पार गुणम्यान और इनको अपर्यात भवस्था गुणस्थान तो परखएरागम से जाने जाय और बा जामना करणानुयोग का पिगममझा जाय, मनुष्य के वा गुणस्थानों का जानना भी इसी पटम्बर डागमस मिड हो जाय, वन व्यतीक पांच गुणस्थान को इस पटबाडागम में नहीं जाने जांय, और बल द्रव्यबीके गुणम्यान ही चरगानगीग का विषय बताया जाय, बाकी तीनों गनियो र गुयान करगानुयोग का विषय माना जाय भीर वह पटवएडागम में ही जाना जाय ! यह काई संहतुक एवं शाम सम्मन यान तो नहीं है, केवल संयत पर जुस बने लिये तु शुन्य तकणा मात्र है। अन्यथा वे विान प्रकट को कि केवल दम्याची ही गुणस्थान चरणानुयोगका विषय क्यों १ बाकी गनियों के गुणस्थान उस विषय क्यों नहीं ? केवल दृष्यसी के गुणम्पानों का करणानुयोग से निषेध कर हमें तो मा विदित । कि पापलांग भी यात्री को मोक्ष का साक्षात पात्र, हीन संहनन में भी बनाना चाहते हैं । आपका बमा भाव नहीं होने पर भी पापका यह परणानुयोग का विधान ही दव्य श्री के लिये मांग का विधान कर रहा है। यदि पार भावही के साये हुये पोस गुणस्थानों को एक बार चरणानुयोग का विषय कह देखें तो कम मे कम यह युति नो पाप दे सकेंगे कि कोदह गुणस्थान वास्तव में तो पुरुषकही ति है। श्री वा मासा परक कमोदय मात्र