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दोनों रूप से बनाये गये है । वस्तु ।
पं० फूलचन्द जी शास्त्री का यह भी कहना है कि 'द्रव्य मो बदल जाता है परन्तु भागवेद नहीं बदलता,' साथ ही वे यह भी मिलते हैं 'द्रम्यस्त्री के मुक्ति जाने की चर्चा कुछ शताब्दियों से ही चल पड़ी है। तभी से टीका और उत्तर कालवर्ती ग्रन्थों में द्रव्यवेदों का भी उल्लेख किया जाने लगा है'।
शास्त्र जी ने इन बातों की सिद्धि में कोई आगम प्रमाण नहीं दिया है। अतः ऐसी बाजकल की इतिहासी खोज के समान अटकतपच्चू की बातों का उत्तर देना हम अनावश्यक समझते हैं । पार्थ विपर्यास नहीं हो, इसके लिये दो शब्द कह देना ही पान समझते है कि यदि द्रव्यवेष बदल जाता है वो गोम्मटसार, राजहार्दिक आदि सभी प्रन्थों में जो जन्म से लेकर बस भव के चम समय तक दव्यवेद एक ही बताया गया है और भावदेद का परिवर्तन बताया गया है वह सब कथन एवं वे सब शस्त्र इस को के सामने मिथ्या ही ठहरेंगे। जैसा कि लिखा है
भवप्रथमसमयमादिकृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंत द्रव्यपुरुषोभवति तथा भवप्रथम समयमारिं कृत्वा वनचरमसमयपर्यंतं द्रव्बती भवति ।
(गो० जी० पृष्ठ २६१)
यह टीका गोम्मटसार को 'सामोद वेस बन्दे पायेय समाकविसमा'। इस गाथा को है। इसी प्रकार अन्यत्र भी है। भागोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला शरीर विशिष्ट चिन्ह