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१२७ समारोका ही दोषमस्तु । इस पालापाधिकारसे भी भाव बेद निरूपण के साथ हव्य की सिद्धि भी हो जाती है। परि
मेर की सिद्धि नहीं होती तो बोदेव के सरप में और परिने नरक को बोरकर शेष नरकों के नपुसकरे के उदय में अपर्याप्त भामाप में चौथे गुणस्थान का प्रभाव और उनके पांतालाप में ही समाप कैसे बताया जाता १ पत: पालापाधिकार से सबंया भाववेकी सिद्धि कहनाभविकार बिकती। यदि'मानाधिकार में भावर काही कान है, म्यर का नहीं है। ऐसा माना जाय तो नीचे जिला शेष भाताहै- सत्यरूग्णा-अनुयोग द्वार वा मासाप में श्री की भपयांत पवाया में मिध्याव और सामा दन ये दोहो गुणस्थान बताये गये हैं जैसा कि प्रमाण हैविवेर मपजत्ताणं भएणमाणे भास्थ वे गुणकृष्णामि ।
___ (पृष्ठ १३७ पवन सिखांत) यदि भानापाधिकार में द्रव्यवेद का पर.न नहीं तो खीर को अपर्याप्त अवस्था में मिध्वात्व सासादन पोर सयोगवनी ऐसे तीन गुणस्थान पबलाकार बताते जैसा कि उन्होंने गतिमाप में बताया है यथावासिंचव अपनत्तार्ण भएणमाणे अस्थि तिरिण गुणहाणाणि।
(पृष्ठ २५८ धवन सिद्धांत) ऐसा भेद क्यों जबकि सर्वत्र भावर कातीवन है।इस लिये यह समझ लेना चाहिये कि वासापों में पर्याप्त अपर्याप्त विधान की ही मुख्यता है उनमें सम्मा गुणस्थान द्रव्य और मार