________________
१२६ भावपक्षी विद्वान बराबर लिख रहे हैं परन्तु भालापाधिकार से दोनों वेदों का सनाव सिद्ध होता है देखियेमसिणि पमतविरदे माहारदुगंतु णथि णियमेण ।
(गो० जी० गाथा ७१५ पृष्ठ ११५४) इसका अर्थ संस्कृत टीका में इस प्रकार लिखा है
"द्रव्यपुरुष--भावनी-माप्रमविरते पाहारकतदंगोपांगनामोदयः नियमेन नास्ति ।"
तथा प-भावमानुष्यां चतुर्दश गुणस्थानानि द्रव्यमानुप्यां पति शासध्यम।
इसका हिन्दी अर्थ २० टोडरमन जी ने इस प्रकार किया है दृष्य पुरुष और भावसो ऐसा मनुष्य प्रमत्तविरत गुणस्थान होइ ताके बाहारक पर माहारक मांगोपांग नामकर्म का उमय नियम करि नाही है।
बहुरि भाव मनुषिणी वि चौदह गुणग्यान द्रव्य मनुष्यणी विषे पांच ही गुणस्थान है। संस्कृत टीकाकार और परिणत प्रबर टोडरमल जी को इसने महान पन्य की टीका बनाने का पूर्णाषिकार सिद्धांत रास्यता के नाते प्राप्त या सभी समोंने मूल गाथाघों की संस्कृत हिन्दी व्याख्या की है। इसलिये मोने रोकायें 'मूल प्रन्य को बिना समझे प्रन्याशय विरामी है। ऐसो पात जो कोई करते हैं वे हमारी समझ से वस्तु स्वरूप का अपलाप करने का विकास करते हैं। मूल में और रीका. मों में कोई भेद नहीं है। जिन्हें भेद प्रतीत होता। वह उनकी