________________
१०५
सोनी जी ने जो र!जवातिक का प्रमाण दिया है वह भी उनके अभीष्टको सिद्ध नहीं कर सकता है, कारण खियों के साथ पर्याप्त शेष जोड़कर बारिक में चौदह गुणस्थान बताये जाते तब ती उनका कहना अवश्य विचारणीय होता परन्तु इस एक ही वाक्य में 'भाव लिंगापेक्षा द्रव्य लिंगापेक्षेण तु न यानि ये दो पद पड़ हुये हैं जो विषय को स्पष्ट करते हुये पर्याशेषको द्रव्यपुरुष के साथ ही जोड़ने में समर्थ हैं। राजवातिककार ने तो एक ही वाक्य में भाव और द्रव्य दोनों का कथन इतना स्पष्ट कर दिया है कि उसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं हो सकता है। उन्होंन जीव कोपर्यात अवस्था के स्त्री भाववेद में चौदह गुणस्थान और और प्रति पीपेक्षा से अदि के पांच गुणस्थान स्पष्ट रूप से बना दिये हैं। फिर भावपक्षी विद्वान किस व्यक्त एवं अति बात का लक्ष्य कर इस राजवार्तिक के प्रमाण को भाववेद की सिद्धि में उपस्थित करते हैं सो समझ में नहीं जाता ? श्री राजवानिककार ने और भी क्रयस्त्रीबंद की पुष्टि आगे के वावग द्वारा राष्ट रूप से करदी है देखिये
अपर्याप्त
भये सम्ययत्वेन सह स्त्रीजननाभावात् ।
इसका यह अर्थ हैं कि मानुषी की अपर्याप्त अवस्था में शाद के दो गुणस्थान ही होते हैं क्योंकि स्म्यग्दर्शन के साथ ही पर्याय में जीव पैदा नहीं होता हैं। यहां पर की पर्याय में जब पैदा होने का निषेध किया गया है तब मानुषी शब्द का अर्थ
रूप से द्रव्यस्त्री ही राजवार्तिककार ने
अपर्याप्त अवस्था में बत