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________________ १.६ दिया है। अतः भावपक्ष की सिद्धि के लिये राजवार्तिक का कथन अनुपयोगी है। सोमी जी ने राजार्तिक की पंक्ति का अर्थ अपने पक्ष की. सिद्धि के लिये, मनः कलिगत भी किया है जैसा कि वे लिखते हैं"यहां भाष्य में पर्याप्त मात्र मानुषियों में चौदह गुणग्थानों को सत्ता कही गई है और अपर्याप्त भार मानुपियों में दो गुणस्थानों की।" यहां पर 'अपर्याप्त भाव मानुषियों में दो गुणस्थानों की' इम में 'भाव' पद उन्हों ने अधिक जोड़ दिया है जो भाष्य में नहीं है चोर विपरीत पर्थ का साधक होता है। राजवार्तिक के वाक्य में 'अपर्याप्तिकासु' केवल इतना ही पद है उसमें भाव पद नहीं है। किन्तु 'बी जननाभावान' इस वाक्य स राजाककारने द्रव्यवंद बाली बी का हो ग्रहण किया है। भाववेद स्त्री का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु सोनी जी ने अर्थ में व्यवेद स्त्री को तो बोर ही दिया है और भाववेद स्त्री का उल्लेख शक्य न होनेपर भी उसका उल्लेख अपने मन से किया है। इसी प्रकार भाष्य में देवन 'अपांतिकासु' पद है परन्तु सोनी जी ने उसके अर्थ में दोनों ही प्रकार की अपर्याप्त मानुषियों में भाग के दो गुणस्थान होते हैं। ऐसा दोनों ही प्रकार की' पद मनः कहिपत जोड़ दिया है। जो उचित नहीं है। सूत्र में बोन्होंने 'परमादेवार्षात द्रव्यमीण नितिः सियत काकर संजर पाकी माशझा ठाई है उसका समाधान
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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