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सम्भावना और सद्भाव बताया है, वह इम्यवेद अथवा द्रव्यशरीर को मुख्यता से ही बताया है। वहां भाववेद की अपेक्षा से कोई कथन नहीं है। बस यही मूल बात भावपक्षी विद्वानों को समझ लेना चाहिये, इस समझ लेनेपर फिर '६३वां सूत्र द्रव्यत्री का ही विधान करता है। और देसी अवस्था में उस सूत्र में 'सञ्जद' पद नहीं हो सकता है । अन्यथा द्रव्यत्री के चौदह गुणस्थान और मोक्ष की प्रानि होना भी सिद्ध होगा, जो कि होन संहनन एवं वस्त्रादि का सद्भाव होने से सर्वथा असम्भव है। ये सब बातें भी उनकी समझ में सहज श्रा नायगी, इसी मूल बात का दिखाने क लिये हमने उन चारा मार्गणामों में और पर्याप्तियों में गुणस्थानों का दिग्दर्शन इस लेख (ट्रैक्ट) में कराया है। केवल ६३वे सूत्रका विवेचन कर देने से विशेष स्पष्टीकरण नहीं होता, और संयत पद की बात विवादमें डाल दी जाती । अतः न उद्धरणों के देनेस लेख अवश्य बढ़ गया है परन्तु अब संयतपद के विषय में विवाद का थोड़ा भी स्थान नहीं रहा है।
१००वे सूत्र में इस द्रव्य शरीर अथवा द्रव्यवेद के विधायक योग निरूपण और पर्याप्तियों के कथन को समाप्त करते हुये धवलाकार स्वयं स्पष्ट करते हैं
एवं योगनिरूपणावसर एव चतसृषु गतिषुपर्याप्तापर्याप्तकालविशिष्टासु सकलगुणस्थानानामभिहितमस्तित्वम् । शेषमागणामु भयमय किनिति नाभिधीयते इतिचेत नोच्यते, अनेनैव गतार्थस्वात गतिचतुष्टयव्यतिरिक्तमार्गणाभावात् ।