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चार का बर्णन भी किया गया है। यथा
सनत्कुमार महेन्द्रयोः स्पर्शप्रभीचाराः तत्रतन देवा देवांगनास्पशनमात्रादेव परां प्रीतिमुपलभन्ते इतियाबम् तथा देव्योपि । (धवला पृ १६६ )
अर्थात सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो स्वर्गो में स्वश प्रथीचार है। उन स्त्रर्गों के देव देवांगनाओं के स्पर्श करने मात्र से चयन्न प्रोति को पात्र हो जाते हैं उसी प्रकार देत्रियों भी उन देवों के स्पर्शमात्र से भी प्राप्त हो जाती हैं ।
यह सच द्रव्यवेद का बिलकुज खुलासा वर्णन है । द्रव्यपुल्लिंग द्रव्यकीनिंग के बिना क्या स्पर्श सम्भव है ? अतः इस द्रव्यवेद ष्ट विधान का भी भावपक्षी विद्वान सर्वथा निषेध एवं नोप कैसे कर रहे हैं ? सो बहुत आश्चर्य की बात है ।
- मूल बात -
श्री पटखण्डागम के जी प्रस्थान सत्प्ररूपणा द्वार में जो गति, इन्द्रिय, काय और योग इन चार मार्गणात्रों में गुणस्थानों का कथन है। वह सब द्रववेद अथवा द्रव्यशीर के ही भाश्रित है, उसी प्रकार पर्याप्ति और अपर्याप्त के साथ गुथस्थानों का कथन भी द्रव्यवेद अथवा द्रव्यशरीर के आश्रित हैं। क्योंकि पटपर्याप्रियों की पूर्णता और अपूरणता का स्वरूप द्रव्य शरीर रचना सिवा दूसरा नहीं हो सकता है, इसलिये सूत्रकार आचार्य भूतबलि पुष्पदन्नने तथा धवकाकार आचार्य वीरसेन ने उक्त चारों मार्गणाओं एवं पर्याप्तियों अपर्याप्तियों में जो गुणस्थानों की