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भावदो विद्वान अपर्याप्ति का अर्थ जन्मकाल में होने वाली शरीररचना अथवा सरीर निष्पत्ति रूप अर्थ तो मानते नहीं है। यदि अपांति का पर्थ वे शरीर को अपूर्णता करते हैं तब तो
व सूत्र से रव्य शरीर अथवा द्रव्यवेद को ही सिद्धि होगी। क्योंकि यहां पर वेद मागंणा का कथन तो नहीं है जो कि नोकषाय जनित भाववेद रूप हो किन्तु शरीर नामकर्म, बांगोपांग नामक चोर पर्याप्त नामकर्म के उदय से होने वाली शरीर निष्पत्ति का
धन। वह द्रव्यवेद की विवक्षा में ही घटेगा। भोर जिस प्रकार इस सूत्र द्वारा व्यवेद माना जायगा तो ६२-६३ सूत्रों द्वारा भी द्रव्यत्री का कथन मानना पड़ेगा । परन्तु जब क वे लोग सर्वत्र भाववेद मानते हैं तब इस वें सूत्र में अपर्याप्त मनुष्य के सयोग कंवली गुणस्थान भी अनिवार्य सिद्ध होगा। क्योंकि समुद्घात की अपेक्षाले भौगरिक मिश्र और कार्माण काययोगमें अपर्याय अवस्था मानी गई। मत: वहां पर तेरहवां गुणस्थान भी सिटहोगा। परन्तु सूत्र में पहला दुसरा भोर पोथा, ये तीन गुणस्थान ही अपर्याप्त मनुष्य के बताये गये है १ सो कैसे? इसका समापन भाववेद-वादी विद्वान क्या करते है ? सो पष्ट करें।
दूसरी बात हम उनसे यह भी पूछना चाहते हैं कि एकेन्द्रिय द्वीमिय स लेकर पंचेन्द्रिय तक सर्वत्र नित्यपर्याप्तक कामर्थ वे क्या करते हैं। पटखएडागम में सर्वत्र (१०० सूत्रों तक) शरीर की अनिचि (शरीर रचना को अपूर्णता) अर्थ किया