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ग्रंथसमातिना दोहा. ՀԱՍ सुरसरिताके तट वसे, पामलिपुर शुजथान; जिहां सुदर्शन साधुवर, पाया केवलज्ञान ॥२॥ ब्रह्मचारि शिर सेहरो, थूबिनम गुणधाम; जिण कोश्या प्रतिबूळवी, जिणपुर राख्यु नाम ॥३॥ तिण पुर साह शिरोमणि, सोमचंद अनिधान; दाता जुक्ता शुजमति, चातुरजन परधान ॥४॥ तसु सुत नजक व्रतरुचि, धर्मे दृढमतिमान; हेमचंद नामें निपुण, हाटक सम गुणवान् ॥५॥ धर्मकथा सुणिने नर, व्रतरुचि तव कहे साह; लिख दीजें व्रतकी विगत, विस्तरसें हम चाह ॥६॥ समकित युं व्रत बारकी, विगत पुनी अतिचार, वृद्धपरंपर शास्त्र बहु, विखि कीनो बिस्तार ॥ ७॥ आगमजलधि अपार है, मुज मति नौका तुब को निवहे जादों नदी, पकरे नेडी पुड ॥७॥ आगे बहुश्रुतने लिखे, विरती वात विशेष; वाकू दिख नाषा लिखू, उनमें कौन विशेष ॥ ए तौजी तसु आसय अगम, जो बिन पाय अशुद्ध; लिखि मिला मुक्कडं, साखी गुरुजन बुद्ध ॥ १० ॥ अल्पमती आज्ञान हूं, जाणुं न बहुत रहस्य; कृपा करी मोपरि कृती, करजो शुद्ध अवश्य ॥११॥ विगत एह व्रत बारकी, लिखी यथामति योग, व्रतरुचि विविध अन्न्यास करि,करजो तसु परिजोग॥१२॥ काल अनंत अनंतमय, जो पुग्गल परिअहः सोनी अनंतानंत गये, जनम मरण संघट्ट ॥ १३ ॥ परमरिपू परमाद है, तसु जय करण उपाय%; विधियुत मानव नव लह्यो, तौनि न चेतो कांय ॥१४॥