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________________ १९६ ग्रंथसमातिना दोहा. नूले जव जो एह तुम, बहुरि न आवै हब; तो चेतो चितमें चतुर! निसुणी श्रुत परमब ॥ १५॥ . सुविहित सूरि सिरोमणि, नागरवंदित पाय%; (श्री) पुण्य सागर सूरिंज ते, तपगबपति सुखदाय ॥१६॥ . तसु आणा सिर धारतां, वारतां विषय कषाय; श्रुतधारी उपगारिबहु, (श्री)ज्ञान सागर उवद्याय॥१७॥ तासु शिष्य पूरव तणा, तीरथ नेटण काज; किय प्रयाण शुन दिन घडी, शुन्न शकुलें शु साज ॥१७॥ तीरथ फरसत आविया, पटणा नयर सुगय; परमानंद नयो वंदतां, शेठ सुनीसर पाय ॥ १५ ॥ दिन केताश्क तिहां रहि, लिख्यो सुव्रतविस्तार, वज्रोत्कीर्णमणिसूत परि, बहु श्रुतके उपगार ॥ २० ॥ इह विधि जो व्रत धारशे, वारशे विषयकषाय; विलपे ज्ञान उद्योतमय, आनंदघन सुखदाय ॥२१॥ इति श्रीसम्यक्त्वमूल द्वादशत्रतविचार पतिः विस्तारसहिता संपूर्णा ॥ यं E, थाग्रंथःकिंचिन्यूनोचतुःसहस्त्रः॥ A5 A , 401
SR No.010539
Book TitleSamyaktva Mul Bar Vratni Tip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotsagar Gani
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1897
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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