SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारित्राचारा तिचार स्वरूपं. १८१ काल, ने श्रावक सामायक पोसहमां लघुनीति, वडी नीति, मे ल, श्लेष्मादि जे परठवणा लायक वस्तु, ते शुद्ध निर्जीव भूमि ना स्थानकमां दृष्टिपडिलेहणापूर्वक, पुजन प्रमार्जन करीने परवे, एवो याचार. तेथी विपरीत, प्रणिधान रहित अनुप योगी को परवे, तो पांचमो अतिचार लागे. हींयां पहेली बे समिति, पोसह सामायकमां तो अवश्य साचववी. कदापि न सचवाय, तो पण ए बेनो जैनधर्मीने उपयोग राखवो, कारण ए धर्मनो मूलमार्गबे. बो ६ अनुपयुक्तमनप्रवर्त्तनातिचार. ते जे साधु सर्व कालें श्रावक सामायकादिक धर्मकरणीना अवसरें पूर्वोक्त प्रणि धानपूर्वक सर्व कुविकल्प बोडीने सूत्रार्थ चिंतवन प्रमुख आलं बनयुक्त उपयोगी थको मनने स्थिर राखे, ते मनगुप्ति आचार, नाथ विपरीत यार्त्तध्यानादिकें करी कुविकल्पमां मन दोडावे, ते बघ तिचार. ७ सातमो अनुपयुक्त कारणवचनातिचार. ते जे साधु सर्व काल छाने श्रानक सामायक पोसहमां प्रायें मौनज रहे. अने बोले, तो पण उपयोगी, पूर्वोक्तप्रणिधानयुक्त अवश्य कारण योगें जिनाज्ञायुक्त सर्व जीवने हितकारक, एवं शुद्ध जांगे सां जलवामां मधुर एवं वचन कहे, ते वचनगुप्ति आचार एनाथ विपरीत निष्कारणे जेतुं तेवुं बोले, ते सातमो तिचार. मनुपयुक्त निष्कारण काययोगचपलता तिचार. ते जे साधु सर्वकाल श्रावक पोसह सामायकमां इंडिजने गुप्त क री राखेने अवश्य कारण योगें उपयोगी थको प्रणिधान यु क्त श्राज्ञापूर्वक जयणाथी हस्त पादादिक याकुंचन प्रसारण क रे, अथवा उठे, बेसे, ते कायगुप्ति प्रचार. पण निष्कारण, अनुपयुक्त, अने विधिपूर्वक जे हस्त पादादिक योगचपल
SR No.010539
Book TitleSamyaktva Mul Bar Vratni Tip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotsagar Gani
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1897
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy