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चतुर्थ दीक्षा कल्याणक पूजा
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भूपति वर्धन को अनुमति से, वीर वहां से निकल पड़े। सन्ध्या समय वृक्ष के नीचे, ध्यानावस्थित रहे खड़े। उसी समय वाला इक श्राकर, बैल सौंपकर उन्हें चलो । जब लौटा तब पैल नहीं थे, क्रोध अग्नि में भुना जला । रसी लेकर चला मारने, इन्द्र ने आकर रोक लिया । शिक्षा उसको देकर उसने, वीतराग से अर्ज किया। विमो ! आपके हर संकट में, अाज्ञा हो तो साथ रहूँ । अंगीकार न किया वीर ने, फहा स्वयं निज पॉह गहूँ ।। चले.
[३] भोरा सनिवेशाश्रम में विभु, दुईजन्त के पास गये । सुहद-पुत्र को मेंटा ऋषि ने, वीर प्रेम में मग्न भये ।। पन्द्रह दिवस बिनाकर विभुवर, अस्थि ग्राम में आते हैं । शूलपाणि सुर के मन्दिर में, भी इक रात बिताते हैं। उसी रात में शूलपाणि सुर, ऊधम बहुत मचाता है । नाखिर थक कर हार-हार कर, दामा मागकर जाता है । चले०
दोहा सोमभट्ट पितुमीत जन, पहुँचा दीन शरीर । माँगा तब प्रभु ने दिया, देव दुष्य निज चीर ॥२॥ पंडकोशिया साँप ने, उसा पीर-पद एक । शिक्षा पाई, पन तजा, यो गति पाइ नेक ॥२॥