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महाबीर-षट्-मस्याण ५i ( ) चतुर्थ दीक्षा कल्याणक पूजा
दोहा अनायास, प्रकटे पुनि, श्री लोकान्तिक देव । प्रभु से बोले विनत हो, सहज पालु सदैव ॥१॥ एक वर्ष अब बीत चुका, प्रभु की तत्काल | ધર્મ-વત્ર પ્રવર્તન, મિટે નાત નંગત વારસા नीति निभाने के लिये, पहुँच यशोदा पास । कहा वीर ने हे प्रिये, विदा करो सोल्लास ॥३॥ प्रिय मुख से यह बात सुन, बोली वह मम प्राय ।।... जात्रो! जात्रो !! प्रेम से, फरो विश्वयायामा
( लय सुनो सुनो हे दुनिया पालो......) चले प्रभु धन धाम छोड़कर, संयम-प्रत के हो अनुरागी। वर्षी दान देकर के विभुवर, श्राज बने हैं अयं निरागी।। इन्द्र-इन्द्राणि, नगर नर नारी, उत्सव खूप मनाते हैं । पूजन-अर्चन करके प्रभु का, प्रेम-पुष्प बरसाते हैं। चन्द्र प्रभा शिविका में बैठकर, हातखण्ड में आते हैं । अशोक तर तर त्यागे सब कुछ, शिव सरूप बनजाते हैं। मिगसर शुदी दसमी को प्रभुवर, संयम-पर्य अपनाते हैं । अपनाकर बन पूर्ण यमी वे, मने पर्यव पर प्रति है ।। पले.