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इसके लिए जैन दिवाकर प्रसिद्धवक्ता पण्डित मुनि श्री चौथमलजी महाराज के सुयोग्य शिष्य, अनेक ग्रंथों के लेखक, साहित्यरत्न, गणिवर्य पण्डित मुनि श्री प्यारचन्दजी महाराज से प्रार्थना की गई । गणीजी महाराज ने व्यावर-चातुर्मास के समय भाष्य-लेखन का अपना विचार कक्त किया और प्रथम अध्याय की कुछ गाथाओं पर भाष्य लिखा भी सही। मगर पर्याप्त अवकाश न मिलने से तथा अन्यान्य आवश्यक कार्यों में व्यस्त हो जाने से जब आपने देखा कि इस गति से भाष्य का कार्य बहुत समय तक पूरा न हो सकेगा तो आपने यही उचित समझा कि किसी अन्य विद्वान से भाष्य लिखवाया जाय और जब वह लिखा जा चुके तो उसका संशोधन आदि कर दिया जाय। तंदुनुसार भाष्य लेखन का कार्य पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ को सौंपा गया। भारिल्लजी जैन समाज के सुप्रसिद्ध लेखक और धर्म शास्त्र के सुयोग्य विद्वान हैं। उन्होंने योग्यता के साथ यह कार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात् श्रीगणीजी महाराज ने सूक्ष्म" दृष्टि से आद्योपान्त्य पढ़कर उसमें यथायोग्य आवश्यक संशोधन आदि कर देने की महती कृपा की। जब भाष्य संशोधित रूप में तैयार हो गया तो संस्था के संचालकों ने उसका प्रकाशन-कार्य आरंभ करवाया।
निर्मन्थ प्रवचन पर लिखा हुआ यह भाष्य, हमारे ख्याल से इस युग की एक उत्कृष्ट जैन रचना है । इसमें सरलतापूर्वक जैन धर्म के दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है । हमें विश्वास है कि धर्म एवं साहित्य प्रेमी जनता निम्रन्थ प्रवचन के इस भाष्य का भी स्वागत करेगी और हमारा उत्साह बढ़ाएगी।
वर्तमान युद्ध के कारण प्रत्येक वस्तु बेहद महंगी है। कागज प्रथम तो मिलता ही नहीं, अगर मिलता भी है तो काफी बढ़े मूल्य पर । ऐसे विकट समय में इतने बड़े . विशालकाय ग्रंथ को प्रकाशित करना बड़े साहस का काम है । हम अपने प्रेमी सहायकों एवं पाठकों के बल पर ही यह साहस कर सके हैं। प्रस्तुत भाष्य को प्रकाशित करने के निमित्त जिन उदाराशय श्रीमानों ने आर्थिक सहयोग दिया है, हम उनके अतिशय कृतज्ञ है। उन्हीं की कृपा से यह ग्रंथ प्रकाश में आ सका है।
जिन्होंने अनेकानेक सुन्दरतर साहित्य-ग्रंथों का प्रणयन किया और निग्रन्थ प्रवचन जैसा अनुपम रत्न हमें प्रदान किया है, उन श्री जैन दिवाकरजी महाराज के प्रति हम किस प्रकार अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकते हैं, यह समझ में नहीं आता। जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही जगत्-कल्याण के लिए अर्पित किया है। उन मुनि महाराज को हम से कृतज्ञता पाने की किंचित् भी कामना नहीं है, फिर भी कृतन्न के दोष से बचने के लिए हम श्री जैनंदिवाकरजी महाराज के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं, हार्दिक भक्तिभाव व्यक्त करते हैं। साथ ही उनके योग्यतम