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________________ पन्द्रहवां अध्याय [ ५४७ ] उपाय का यहां कथन किया गया है वह व्यवहार में लाया हुआ है, अभ्यस्त है । अभ्यस्त उपाय में शंका के लिए श्रवकाश ही नहीं रहता । ऐसे उपाय में श्रद्धा के साथ-साथ प्रतीति भी हो जाती है । जिस पथ पर पहले किसीने प्रयाण न किया हो, वह पथ भले ही सुगम हो, फिर भी दुर्गम ही जान पड़ता है । जिस पथ पर दूसरे पुरुष चले हों अथवा चलते हों वह दुर्गम होने पर भी सुगम-सा प्रतीत होता है । मनुष्य की इस प्रकृति के ज्ञाता शास्त्रकार ने मनोजय के मार्ग को प्राचार्य बताने के लिए 'निगिरहामि' क्रियापद का प्रयोग किया है | तात्पर्य यह है कि धर्मशिक्षा के द्वारा ही मैंने मन का निग्रह किया है और धर्मशिक्षा के द्वारा ही तुम अपने मन का निग्रह कर सकते हो । मनोनिग्रह को शास्त्रीय भाषा में मनोगुप्ति भी कहा गया है। मनोगुप्ति से क्या लाभ होता है, यह शास्त्र में इस प्रकार बतलाया है— प्रश्न - मणगुक्त्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणेह ? उत्तर—मणगुत्तयाए जीवे एगरगं जणयह, एगग्गचित्ते से जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । प्रश्न--- भगवन् ! मनोगुप्ति से जीव को क्या लाभ होता है. ?. उत्तर- हे गौतम ! मनोगुप्ति से जीव को एकाग्रता की प्राप्ति होती है । एकाथ चित्त वाला जीव संयम का आराधक होता है । इसी प्रकार मानसिक समाधि के विषय में शास्त्र में लिखा हैप्रश्न-सणलमाहारण्याप णं भंते ! जीवे किं जणय ? उत्तर--मणसमाहारण्याए एगग्गं जणयइ, एगग्गं जगइत्ता नागपज्ज्ञवे जणयइ, नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोद्देद्द, मिच्छत्तं य निज्जरे । प्रश्न- भगवन् ! मन को समाधिमें स्थिर करने से जीव को क्या लाभ होता है ? : उत्तर-सन को समाधि में स्थिर करने से एकाग्रता आती है । एकाता ' उत्पन्न करके जीव ज्ञान पर्याय अर्थात् ज्ञान की अपूर्व शक्ति प्राप्त करता है और आत्मज्ञान की शक्ति प्राप्त करके सम्यक्त्व की विशुद्धि और मिथ्यात्व की निर्जरा करता है । शास्त्रकार ने मन की एकाग्रता का जो फल बताया है उससे यह स्पष्ट है कि संयम की आराधना, श्रात्मज्ञान की प्राप्ति, सम्यक्त्व की विशुद्धि और मिथ्यात्व की निर्जरा के लिए मनोगुप्ति, मनः समाधि अथवा मनोनिग्रह कितना आवश्यक है । इस प्रकार मन को वश में करना कठिन भले ही हो, पर असंभव नहीं है । मनोनिग्रह असंभव होता तो शास्त्रकार ऐसा करने का उपदेश ही न देते । उपदेश संभव का दिया जाता है, असंभव का नहीं । मन की एकाग्रता के विना सच्ची शान्ति नहीं मिल सकती । मनुष्य मात्र. निद्रा लेता है । एक रात भी अगर जागते-जागते व्यतीत की जाय तो स्वास्थ्य
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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