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________________ - - . मनानिग्रह । चाहते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ! ऐसे लोग मन के क्रीत दास बनकर उसके संकेत के अनुसार चलकर अपना घोर अनिष्ट करते हैं व लोग घोर राग-द्वेप आदि में लिप्त होकर अत्यन्त अशुभ और कटक फल देने वाले कर्मों का संचय करके। श्रात्मा को भारी बनाते हैं। मन पारे की तरह चपल है। जैसे पारा एक जगह स्थिर नहीं रहता, इसी प्रकार विशिष्ट योगियों को छोड़ कर, साधारण जन का सन भी स्थिर नहीं रहता। उसकी गति का वेग वायु से भी अत्यन्त तव होता है। एक क्षण में यहां है तो दूसरे क्षण में वह किसी दूसरे ही लोक में जा पहुंचता है। जैसे ज्वार और भाटे के कारण समुद्र शान्त नहीं रहने पाता उसी प्रकार मन की चंचलता के कारण आत्मा शान्ति का अनुभव नहीं कर पाती। शास्त्रकार ने मन को दुष्ट श्रश्व की उपमा दी है। दुष्ट अश्व अपने भारोही के नियन्त्रण से बाहर हो जाता है। ज्यों-ज्यों उसकी लगाम खेची जाती हैं त्या-त्यों बद्द कुपथ की ओर अधिकाधिक अग्रसर होता है। मन की भी यही स्थिति है। जैसे-जैलें उसे नियन्त्रण में लेने का प्रयत्न किया जाता हैं, तैसे-तैसे वह अधिक अनियंत्रित . वनता जाता है। भगर जैसे अत्यन्त कुशल अश्वारोही दुष्ट अश्व को अन्त में वश में कर लेता है उसी प्रकार प्रबल पुरुपार्थ करने वाला योगी भी मन पर विजय प्राप्त कर लेता है। अन्त में दुष्ट अश्व भी अनुकुल बन जाता है, इसी प्रकार अनियंत्रित मन भी अभ्यास से नियंत्रित हो जाता है। तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक साधना करने वालों को सतत् अभ्यास से, मानसिक गति-विधि का सूक्ष्म और सावधान अवलोकन करते हुए मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । मन को जीते विना किया जाने वाला क्रियाकाण्ड करीब-करीक वैसा है जैसे अंक के विनां शून्य राशि । इसी कारण कहा है ___ " मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः "। अर्थात् मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का प्रधान कारण है । मन के बिना तन द्वारा की जाने वाली क्रिया निजीच होती है । सामायिक जैसी प्रशस्त किया करते समय भी मन यदि राग-द्वेष में फंसा हो तो वह भी वृथा हो जाती है। इससे विपरीत वाहा रूप से भोग भोगने वाला भी अगर मन से भोगों में अलिप्त हो वह योगी की कोटि का हो जाता है । अतएव मन का निग्रह करना अत्यन्त आवश्यक है। मन का निग्रह किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है-'तं सम्मं तु निगिरदामि धम्मतिपत्राहि ।' अर्थात में धर्मशिक्षा के द्वारा मन सम्या प्रकार से निग्रह करता है। ... 'निगिरदागि' इस उत्ता पुरुप की क्रिया का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि मनोनिग्रह का यह उपदेश केवल वाचनिक उपदेश ही नहीं है, परन् जिस .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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