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कषार्य वर्णन है। हजारपति लखपति बनने के लिए चोटी से एड़ी तक पसीना बहाता है, लखपति करोड़पति बनने के लिए मरा जाता है। करोड़पति अरबपति होने के लिए वेचैन है। किली को अपने यशोविस्तार की लालसा सता रही है। कोई संतान की प्रांशा लगाये बैठा है । किसी को कुछ चाहिए, किसी को कुछ और इस प्रकार संसार लोभ के तीन दावानल में जल रहा है कहीं शान्ति दृष्टि गोचर नहीं होती। दुनियाँ के किसी कोने में साता का लेश भी प्रतीत नहीं होता। सर्वत्र तृष्णा व्यापक असन्तोष ! लोभ की परम पीड़ा ! अनन्त श्राशाएँ प्राणी मात्र को ऐसे भयंकर और दुर्गम मार्ग की ओर घसीटे लिये जा रही है, जिस मार्ग का कहीं अन्त नहीं है, कहीं ओर छोर नहीं है, जिसमें कहीं विश्राम नहीं है। विवेक रूपी नेत्रों पर पट्टी बांधकर प्राणी चला जा रहा है,-विना सोचे-विचारे, बिना लक्ष्य का निश्चय किये।
जिनके विवेक नेत्र खुले हैं उन्हें लोभ का यह भीषण स्वरूप देख कर, उससे विमुख होकर श्रात्म शान्ति के सुखद पथ पर प्रयाण करना चाहिए। मूल:-पुढवी साली जवा चेव, हिरगणं पसुभिस्सह ।
पदिपुरणं नालमेगस्स, इइ विजा तवं चरे ॥७॥ छायाः-पृथिवी शालिवाश्चैव, हिरण्यं पशुभिः सह।
प्रतिपूर्ण नालमेकस्मै, इति विदित्वा तपश्चरेत् ॥ ७॥ शब्दार्थ-शालि, यव और पशुओं के साथ सोने से पूरी भरी हुई पृथ्वी एक मनुष्य की भी तृष्णा शान्त करने में समर्थ नहीं है । ऐसा जानकर तप का आचरण करना चाहिए।
भाग्य:-शालि और यव श्रादि विविध प्रकार के धान्यों से तथा सोने-चांदी श्रादि बहुमूल्य समझी जाने वाली धातुओं से और हाथी, घोड़ा, भैस, गाय आदि पशुओं से, पूर्ण रूप से भरी हुई पृथिवी, एक ही व्यक्ति को पूरी दे दी जाय तो वह भी उले पर्याप्त न होगी । सम्पूर्ण भरी-पूरी पृथ्वी पाकर भी एक व्यक्ति को संतोप नहीं हो सकता।
इच्छा की अनन्तता का दिद्गदर्शन कराते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट किया है कि मनुष्य किसी भी अवस्था में सन्तुष्ट नहीं हो सकता । यदि एक पृथ्वी उसे पूरी मिल जाय तो वह सोचने लगेगा-'क्या ही अच्छा होता यदि ऐसी-ऐसी दस-पांच पृधि. चियां मुझे मिल जाती ! इस प्रकार उसकी इच्छा अधिक विस्तृत हो जायगी और तृष्णा जन्य दुःस्त्र उसे पूर्ववत् सताता रहेगा।
यहां यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि जब लोभ कभी शान्त नहीं होता, इच्छा का कहीं अन्त नहीं पाता, तृष्णा सदा बढ़ती रहती है, अभिलापाएं असीम हैं और इनकी पूर्ति होना कदापि संभव नहीं है, तय क्या करना चाहिए, ? इन सब