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तेरहवाँ अध्याय
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से छुटकारा पाने का कोई उपाय है या नहीं ? अगर उपाय है तो क्या अकार प्राणी इनके चंगुल से बच सकता है ?
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दल जिज्ञासा का निवारण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं- 'इइ विज्जा त चरे ।' अर्थात् इच्छा की असीमता, श्रनन्तता जान करके तप को खाचरण करना चाहिए ।
तप का स्वरूप बताते हुए श्राचार्यों ने कहा है-' इच्छा निरोधस्तपः ।' अर्थात् इच्छाओं का दमन करना तप कहलाता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इच्छाओं को नष्ट करने का एकमात्र उपाय यही है कि छान्तःकरण में इच्छा का उद्भव ही होने दिया जाय । जैसे अग्नि में ईंधन डालते जाने से असि का उपशम नहीं होता उसी प्रकार इच्छाओं की तृप्ति के लिए लामंत्री जुटाते जाने से इच्छाओं की पूर्तिउपशान्ति नहीं हो सकती । श्रतएव सर्वोत्तम यह है कि इच्छा की उत्पत्ति न होने दी जाय और अगर कभी कोई इच्छा उत्पन्न हो जाय तो उसका दमन कर दिया जाय। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य को इच्छा का दास नहीं, स्वामी बनना चाहिए । जब मनुष्य में बुद्धि वैभव है, उसमें उज्जवल शक्ति के उत्कृष्ट अंश विद्यमान हैं तो वह इच्छा के इशारे पर क्यों नाचे ? उसे इच्छा को हो अपने . इशारे पर नचाना चाहिए । मनुष्य अपने अन्तःकरण का स्वामी है और इच्छा अन्तःकरण की दाली है । क्या मनुष्य को यह शोभा देता है कि वह जिसका स्वामी है, उसकी दासी की अधिनता अंगीकार करे ?
मानव-जीवन अत्यन्त प्रशस्त है, पर इच्छाओं ने उसे अत्यन्त श्रप्रशस्त बना दिया है। इच्छाओं के भार से लदा हुआ मनुष्य कभी उन्नति-ऊंची प्रगति नहीं कर सकता । इच्छा की भूल भूलैया में पड़कर मानव-जीवन पथभ्रष्ट हो गया है । इच्छा ने जीवन को अत्यन्त जटिल और व्यस्त बना दिया है ।
इच्छाओं की दासता स्वीकार करके मनुष्य प्रत्येक पाप में प्रवृत्त हो जाता है । स्वार्थपरता, हृदयहीनता और निष्ठुरता मनुष्य में कहां से आई है ? इच्छाओं क असीम प्रसार से | मनुष्य पर्याप्त जीवन सामग्री पा करके भी, इच्छा का गुलाम हाकर उस प्राप्त सामग्री से संतुष्ट नहीं होता । वह अधिकाधिक निरर्थक प्रायःसामग्री के संचय में इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने भाई-बन्धुनों के जीवन की अनिवार्य आवश्यक्ताओं का विचार नहीं श्राता । वह उनके साथ श्रमानुषिक अत्याचार करताहै, अत्यन्त निष्ठुर व्यवहार करता है । इस प्रकार इच्छाओं के स्वच्छंद प्रसार के कारण ही यह मानवीय जगत् नारकीय भूमि घनसया है। प्राणी सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ विधान मानव-राक्षस के रूप में परिणत हो गया है ।
इच्छाओं के प्रसार का यह ऐहलौकिक दिवर्शन है । आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होगा कि इच्छा मात्र आध्यात्मिक विकास में प्रवल वाघां है 1 जब तक इच्छाओं की निवृत्ति नहीं हो जाती तब तक तपस्या का श्रारंभ ही भनी-भांति नहीं होता, क्योंकि पहले बताया जा चुका है कि इच्छा का निरोध करना ही तर है ।
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