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________________ সংর্ধনা ঘখণ্ড ४७७ नहीं हो सकती । विराट जगत् में जितना धन-धान्य है, हीरा, मोती, मालक, पन्ना, सोना, चांदी श्रादि जितने बहुमूल्य पदार्थ हैं, वे स्व सिर्फ एक मनुष्य को दे दिये जाएँ, तीनों लोको का एकच्छन साम्राज्य भी दे दिया जाय तो भी उसकी इच्छा की पूर्ति न होगी। लोभ अग्नि के समान है। अग्नि में ज्यों-ज्यों इधन डालो त्यो त्यो उसकी वृद्धि होती है। इसी प्रकार लोन को शान्त करने के लिए जैसे-जैसे परिग्रह का संचय किया जाता है तैसे-तैले लोभ बढ़ता ही चला जाता है। अतएव जैसे ईधन देने से अग्नि कदापि नहीं बुझ सकती, उसी प्रकार परिग्रह जुटाने से लोभ कभी शान्त नहीं हो सकता । श्रतएव हृदय में रहने वाली लोभवृत्ति को धन आदि से सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करना निरर्थक ही नहीं विपरीत प्रयत्न है । विवेकीजन इस प्रकार के मूढ़त्तापूर्ण प्रयत्न नहीं करते । चे अकिंचनभाव धारण करके लोभ का विनाश करते हैं। मूलः-सुवण्णरुप्पस्स उ पब्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि,इच्छाहु अामाससमाअणंतित्रा छाया:-सुवर्णरूप्पयोः पर्वता भवेयुः, स्यात् हि कैलाशसमा असंख्यकाः। - नरस्य लुव्यस्य न तैः किञ्चित्, इच्छा हि अाकाशसमा अनन्तिका ॥६॥ शब्दार्थ:-कैलाश पर्वत के समान सोने-चांदि के असंख्य पर्वत हों और वे मिल जाएँ तो भी लोभी मनुष्य की किंचित् मात्र तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकास के समान अनन्त है-असीम है। भाज्य- यहां पर भी लोभ का वास्तविक स्वरूप अत्यन्त सुन्दर शैली से निरू'पण कियागया है। यदि लोने और चांदी के अन-मिनते पर्वत खड़े कर दिये जायें और वे सब किसी एक लोभी व्यक्ति को सौंप दिये जावे, तब भी लोभी को उनसे तनिक भी संतोष नहीं होगा। यह पर्वत पाकर उसके अन्तःकरण में अधिकतर लोभ का उदय होगा और वह सोचने लगेगा कि क्या ही अच्छा होता, अगर हनस्से भी कई गुने पर्वत और मुझे मिल जावे। मनुष्य क्यों सन्तुष्ट नहीं होता ? इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि इच्छा आकाश के समान अनन्त है । जैसे आकाश का कहीं और कभी अन्त नहीं . आता, उसी प्रकार इच्छा का भी कभी अन्त नहीं पाता। आज जो सर्वथा दरिद्र है, जिसके पास स्त्रानेको असनहीं है और पहनने को वस्त्र नहीं है,उसे खाने-पहननेकी व्यवस्था करदी जाय तोवह अन्न-वस्त्र के संचय की अभिलाषा करने लगेगा। संचय करने के लिए अगर अन्न और वस्त्र दे दिया जाय तो क्या उस की अभिलाषा समाप्त हो जायगी ? कदापि नहीं। एक और वह संचय अधिक करने की इच्छा करेगा और दूसरी ओर उसे अन्यान्य भोगोपभोग सामग्री की इच्छा उत्पन्न होगी। इस प्रकार एक इच्छा की पूर्ति होने के साथ ही अनेक नवीन इच्छाओं का उदय होता
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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