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तेरहवां अध्याय
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विद्यमान हैं। अगर उनकी ओर दृष्टिपात किया जाय तो अभिमान का नशा नहीं ठहर सकता। जाति और कुल से किसी में बड़प्पन नहीं आता । शास्त्रों में कहा भी है कि
सक्त्रं खु दोसह तदे।वैसेसो, न दीसह जाइविसेस कोइ ॥
अर्थात् तप आदि गुणों की विशेषता तो साक्षात् देखी जाती है परन्तु जाति की विशेषता तो कुछ भी दृष्टि गोचर नहीं होती । ऐसी स्थिति में जाति का या कुल का मद करना निरर्थक है ।
अभिमानी पुरुष दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखता है, पर उसे यह नहीं आलूम कि समस्त संसार उसे कितनी हीन और उपेक्षा की नजर से देखते हैं ! वास्तव में अभिमान एक ऐसा आचरण है जिसमें विद्यमान गुण भी छिप जाते हैं अभिमान के संसर्ग से अन्यान्य गुण-यदि विद्यमान हों तो वे भी कलंकित हो जाते हैं । अभिमानी पुरुष की कोई भी विवेकशील पुरुष प्रतिष्ठा नहीं करता । श्रतएव अभिमान शिष्ट पुरुषो द्वारा सर्वथा त्याज्य है । प्रत्येक मुमुक्षु को मान कय का निग्रह करना चाहिए ।
(३) माया - माया मोहनीय कर्म के उदय से मन, वचन और काय की कुटि लता रूप श्रात्मा के परिणाम को माया कषाय कहा गया है । माया संसार को बढ़ाने चाली और इस लोक में अप्रतीति उत्पन्न करने वाली है । मायाचारी पुरुष सदा सब के अविश्वास का भाजन होता है । माया अनेक पापों का प्रसव करने वाली और शान्ति का सर्वनाश करने घाली है । अतएव सूत्रकार कहते हैं कि बढ़ती हुई माया पुनर्भव के मूल का सिचन करती है ।
(४) लोभ-- लोभ मोहनीय कर्म के उदय से द्रव्य आदि संबंधी इच्छा, ममता एवं तृष्णा रूप श्रात्मा के परिणाम को लोभ कहते हैं । लोभ समस्त पापों का पिता है । वह ममत्व का विस्तार करने वाला और शुद्ध आत्मरमण में तो बाधा उत्पन्न करता है । वह जगत् के पर पदार्थों से जीव को विलग नहीं होने देता और विलम न होने के कारण जीव को नाम प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं ।
इस प्रकार यह क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कपाय जन्म-मरण रूप संसार के मूल को हराभरा बनाती है ।
शंका-सूत्रकार ने 'वत्तारि एए कलिया कपाया' अर्थात् 'यह सब चार फपाय,' यहां चत्तारि शब्य का प्रयोग करके फिर 'कसिणा' (रुत्स्ना-सय ) शब्द का भी प्रयोग किया है। नियत संख्या 'चत्तारि' पद के प्रयोग का क्या प्रयोजन हैं ? समाधान-प्रोध, आदि चारों फपायों में से प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं उन भेदों का सूचन करने के लिए सूत्रकार ने 'कलिखा' पत्र का प्रयोग किया है।
प्रत्येक के चार-चार भेद इस प्रकार हैं- (१) श्रनन्तानुबंधी (२) श्रप्रत्याख्यानाचरण (३) प्रत्यास्थानावरण और (४) संपवलन |