________________
d
६ १७२ 1
कपाय वर्सन (१) अनन्तानुबंधी-जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता है उसे अनन्तानुबंधी कार्य कहते हैं। इस कषाय से जीव के सम्यक्व गुण का घात होता है। जब तक इसका उदय बना रहता है तब तक जीव सभ्यप्रत्व का लाभ नहीं कर सकता । यह कषाय जीवन पर्यन्त विद्यमान रहता है। इस कषाय के उदय से जीव नरक गति में जाता है।
(२) अप्रत्याख्यानावरण-जिस कषाय के उदय से जीव एक देशविरती रूप प्रत्याख्यान भी करने में समर्थ नहीं होता, वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। इस कषाय के उदय से जीव को श्रावक धर्म की भी प्राप्ति नहीं होती है । अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से तियंच गति की प्राप्ति होती है । यह कपाय एक वर्ष पर्यन्त . बना रहता है।
(३) प्रत्याख्यानावरण--जिस कषाय के उदय से सर्वविरति रूप प्रत्याख्यान नहीं होने पाता उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। यह कषाय साधु धर्म की प्राप्ति नहीं होने देता। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से मनुष्य गति के योग्य कर्मा का वंध होता है । इस कषाय की स्थिति चार मास की है।
(४) संज्वलन-जिस कषाय के उदय से, परिषद अथवा उपसर्ग आ जाने पर मुनियों को भी किंचित् संताप होता है अर्थात मुनियों पर भी जिसका प्रभाव बना रहता है वह संज्वलन कषाय कहलाता है। यह कषाय इतना हल्का है कि इससे साधु के धर्म में भी बाधा नहीं पहुंचती है। यह स्वात्म-रमण रूप यथाज्यात चारित्र में वाधक होता है। यह कषाय एक पक्ष तक विद्यमान रहता है। इससे देवगति के योग्य कर्मों का बंध होता है।
- कषायों की स्थिति और गति का जो वर्णन दिया गया है वह बहुलता से समझना चाहिए। कभी-कभी संज्वलन कषाय भी अधिक काल तक बना रहता है, जैसे राहुबली महाराज को रहा था। इसी प्रकार अनन्तानुबंधी कषाय के सद्भाव में भी कोई-कोई मिथ्यादृष्टि ग्रैवेयक में उत्पन्न हो जाते हैं। कहा भी है
पढमिल्लु श्राण उदए, नियमा संजोयणा कसायाणं। सम्मइंसणभं भवसिद्धिया वि ण लहंति ।। वितिय कसायाणुदए, अप्पच्चक्खाण नामधेयाणं । सम्मइंसणभं विरयाविरई न. उ लहंति ।। तइयकसायागुदय पच्चमखाणावरण नामधेज्जाएं। देसेषकदेसविरई चरित्तलभं न उ लहति ॥ मूलगुणाणं लभं न लहइ मूलगुराधाइपो उदए ।
संजलणाणं उदए न लहर चरणं जहक्वायं ॥ अर्थात् संयोजना नामक प्रथम श्रनन्तानुबंधी कपाय के उदय से भवसिद्धिका (तदभवमोक्षगामी) जीव भी सम्यदर्शन को नियम से प्राप्त नहीं कर सकता।