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कषाय वर्णन अन्त कर देता है, तो बाद में लजित होने एवं पश्चात्ताप करने पर भी कुछ फल नहीं होता।
क्रोधी मनुष्य दुसरों का ही नहीं, स्वयं अपना मी घोर अनिष्ट कर बैठता है। अनेक सूद क्रोधी अपने जीवन का अन्त कर डालते हैं । कोई नदी में डूब मरता है, कोई कृप में गिर पड़ता है और कोई घासलेट श्रादि छिड़क कर आग लगा लेता है। इस प्रकार शोध के अत्यन्त अनिष्ट और अवांछनीय परिणाम आँखों देखे जाते हैं। क्रोध के विषय में ठीक कहा है
उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम्।
क्रोधः कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥ . . अर्थात् क्रोध जब उत्पन्न होता है तब अग्नि की तरह सर्व प्रथम अपने श्राश्रय को ही जलाता है-जिस अन्तःकरण में क्रोध की उत्पत्ति होती है वही अन्तःकरण सर्वप्रथम क्रोध से जलने लगता है। उसके अनन्तर अन्य को कदाचित् जलाता है, कदाचित् नहीं भी जलता । तात्पर्य यह है कि क्रोध से क्रोधी को तो निश्चित रूप से हानि उठानी ही पड़ती है, फिर दूसरे की हानि हो या न हो।
इस प्रकार ऋोध ख-पर सन्तापप्रद है। साम्यभाव का नाशक है। मुक्ति-सुस का बाधक है। अतएव इसका निग्रह करना परम कर्तव्य है क्रोध का निग्रह न करने ले जन्म-भरणं की वृद्धि होती है।
(२) मान-मान मोहनीय कर्म के उदय से जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, श्रादि गुणों का अहंकार करना रूप श्रात्मा का विभाव परिणाम मान कहलाता है। क्रोध की भाँति मान कषाय भी जन्म-मरण रूप संसार की वृद्धि करने वाला है। मान . कषाय के वशीभूत होकर जीव आदरणीय पुरुपों का श्रादर नहीं करता, सन्माननीय जनों का सम्मान नहीं करता। अभिमानी पुरुष के अन्तःकरण में नम्रता का अभाव हो जाता है।
अभिमानी पुरुष अपने रत्ती भर गुण को सुमेर के बराबर और अन्य के महान् गुणों को न कुछ के बराबर समझता है । वह गुणी जनों को भी तुच्छ दृष्टि से देखता है, इसलिए उनके गुणों से तनिक भी लाभ नहीं उठा सकता। ऐसा करने से गुणी जनों की तो कुछ हानि नहीं होती, उलटे उस अभिमानी को ही भीषण हानि सहनी पड़ती है।
अभिमानी के अनेक स्थान हैं। कोई गुणहीन होने पर भी अपनी जाति का अभिमान करता है। कोई अपने कुल के बड़प्पन की गाथा गाता है । कोई भपने ऐश्वर्य का बखान करते नहीं अघाता। कोई अपनी बुद्धि का वर्णन करते-करते नहीं थकता । इस प्रकार विविध प्रकार के अभिमान के नशे में वेभान होकर मनुष्य अपने सत्य स्वरूप को भूल जाता है।
जगत् में एक से बढ़ कर एक बलवान, बुद्धिमान और ऐश्वर्यशाली पुरुष