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________________ आठवां अध्याय [ ३१५ ॥ 'ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है । यम और नियम रूप प्रधान गुणों से युक्त है । हिमवान पर्वत से महान और तेजस्वी है । ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करने से मनुष्य का अन्तःकरण प्रशस्त, गंभीर और स्थिर हो जाता है । साधुजन ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं। वह मोक्ष का मार्ग है। निर्मल सिद्ध गति का स्थान है, शाश्वत है, श्रव्याबाध है। जन्म-मरण का निरोध करने वाला है । प्रशस्त है, सौम्य है, सुख रूप है, शिव रूप है, अचल और अक्षय बनाने वाला है। मुनिवरों ने, महापुरुषों ने धीर-वीरों ने, धर्मात्माओं ने, धैर्यवानों ने ब्रह्मचर्य का सदा पालन किया है। भव्यजनों ने इसका आचरण किया है । यह शंका रहित है, भय-रहित है, खेद के कारणों से रहित है, पाप की चिकनाहट से रहित है। यह समाधि का स्थान है। ब्रह्मचर्य का भंग होने पर सभी व्रतो का तत्काल भंग हो जाता है। सभी व्रत, विनय, शील तप, नियम, गुण, आदि दही के समान मथ जाते हैं, चूर-चूर हो जाते हैं, बाधित हो जाते हैं पर्वत के शिखर से गिरे हुए पत्थर के समान भ्रष्ट हो जाते हैं, खंडित हो जाते हैं। 'निरतिचार ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ही सुव्राह्मण है, सुश्रमण है, नुसाधु है। जो ब्रह्मचर्य का शुद्ध पालन करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयमी है, वही भिक्षुक है।' 'अध्यात्म-भावना-प्रधान ऋषियों और मुनियों ने ब्रह्मचर्य को प्राचार में सर्व श्रेष्ठ स्थान दिया है । इसके अतिरिक्त धर्म भावना हीन पाश्चात्य देशीय विद्वान् भी इसके असाधारण गुणों से मुग्ध होकर ब्रह्मचर्य का श्रादर करते हैं और उसकी महिमा का बखान करते हैं । अध्यापक मोण्टेग्जा कहते हैं 'ब्रह्मचर्य से तत्काल अनेक लाभ होते हैं । ब्रह्मचर्य से तुरन्त ही स्मरण शक्ति स्थिर और संग्राहकं वन जाती है, बुद्धि उर्वरा और इच्छा-शक्ति बलवती हो जाती है । मनुष्य के सारे जीवन में ऐसा रूपान्तर हो जाता है कि जिसकी कल्पना भी स्वेच्छाचारियों को कभी नहीं हो सकती । ब्रह्मचर्य जीवन में भी ऐसा विलक्षण सौन्दर्य और सौरभ भरदेता है कि सारा विश्व नये और अद्भुत रंग में रंगा हुआसा प्रतीत होता है और वह अानन्द नित्य नया मालूम होता है । एक और ब्रह्मचारी नवयुवकों की प्रफुल्लता, चित्त की शान्ति और तेजस्विता, दूसरी और इन्द्रियों के दालों की अशांति, अस्थिरता और अस्वस्थता में श्राकाश-पातल का अन्तर होता है। भला इन्द्रिय-संयम से भी कोई रोग कभी होता सुना गया है ? पर इन्द्रियों के असंयम से होने वाले रोगों को कौन नहीं जानता ? इन्द्रियों के असंयम से शरीर सड़ जाता है और उससे भी बुरा परिणाम मनुष्य के मन, मस्तिष्क, हृदय और संज्ञा शक्ति पर पड़ता है।' इन अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मचर्य आत्मिक, मानसिक और · नैतिक उन्नतिको अत्यन्त उपयोगी व्रत है। साथ ही शारीरिक आरोग्य और शारीरिक शक्ति के लिए भी उसकी अनिवार्य आवश्यकता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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