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ब्रह्मचर्य-निरूपण मनुष्य जो आहार करता है, उससे सप्त धातुओं का निर्माण होता है अर्थात् आहार का सात धातुओं के रूपमें परिवर्तन होता है । सर्वप्रथम आहार से रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद ले हड्डी, हड्डी से मजा और मज्जा से वीर्य की निष्पत्ति होती है । श्राहार का सार रस, रस का सार रजत, रक्त का सार मांस श्रादि आगे की धातुएँ हैं । इस क्रम के अनुसार वीर्य लमस्त धातुओं का सार है। आहार ले वीर्य बनने में लगभग तीस दिन का समय लगता है । '.
वैज्ञानिकों के कथनानुसार एक मन आहार से एक सेर रक्त चनता है और एक सेर रक्त से सिर्फ दो तोला वीर्य बनता है । इस क्रम के अनुसार विचार करने से प्रतीत होगा कि यदि कोई पूर्ण स्वस्थ पुरुष प्रतिदिन एक सेर आहार करे तो चालीस दिनों में उसे लिर्फ दो ही तोला वीर्य की प्राप्ति हो सकेगी।
वीर्य ही शरीर का मुख्य आधार है । शरीर की शक्ति, इन्द्रियों का सामर्थ्य और मन का बल, सभी कुछ वीर्य पर अवलंवित है और वीर्य एक दुर्लभ वस्तु है। ऐसे उपयोगी और जीवन के लिए अनिवार्य बहुमूल्य पदार्थ को जो लोग एक क्षण भर की तृप्ति के लिए गँवा देते हैं, उनके अज्ञान का कहा तक वर्णन किया जाय ? ____ एक बार वीर्य नष्ट करने का अर्थ है-लगभग चालीस दिन की कमाई को धूल में मिला देना, चालीस दिन तक किये हुए आहार को वृथा कर देना और मूल्यवान जीवन के चालीस दिन कम कर लेना ! यही नहीं जीवन का सामर्थ्य, स्वास्थ्य, शरीर की कान्ति और मानसिक शान्ति, आदि सव वीर्य-नाश से नष्ट हो जाता है । 'मरणं विन्दुपातेन जीवन बिन्दुधारणात्' अर्थात् वीर्य के धारण करने पर ही जीवन धारण किया जा सकता है और वीर्य के एक बिन्दु का पतन होना मृत्यु के समान है। वीर्यरक्षा ही सौभाग्य का कारण है, वीर्य-रक्षा से ही विद्या-बुद्धि प्राप्त होती है, वीर्य-रक्षा लें ही प्रात्मा के सामर्थ्य की वृद्धि होती है, वीर्य-रक्षा ही सब प्रकार की उन्नति का मूल-मन्त्र है।
साधारणतया वीर्य-रक्षा को ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है, किन्तु वास्तव में ब्रह्मचर्य का अर्थ है समस्त इन्द्रियों का संयम । जब तक समस्त इन्द्रियों पर संयम न रक्खा जाय तब तक स्पर्शनेन्द्रिय संयम रूप ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो सकता । इसी कारण शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य की-नववाड़ों का उल्लेख करते हुए उसमें पौष्टिक आहार, विकारोत्पादक मसाले आदि के भोजन का त्याग करने का उपदेश दिया है। अर्थात् ब्रह्मचर्य पालन के लिए जिह्वा इंद्रिय पर संयम रखना अत्यन्त आवश्यक है। इसी प्रकार स्त्रियों की ओर देखना और उनके कामोत्तेजक गीत आदि सुनने का निषेध करके चक्षु और श्रवण इन्द्रिय के संयम की आवश्यकता प्रदार्शत की है।
ब्रह्मचर्य की महत्ता को अंगीकार करने वाला समाज और विशेषतः भार्यप्रजा भी इसकी और पर्याप्त लक्ष्य नहीं दे रही, यह खेद का विषय है। प्राचीन काल में बालक जव विद्याभ्यास के योग्य वय प्राप्त कर लेता था, तब उसे कलाचार्य के समीप विविध कलाओं का अभ्यास करने के लिये भेज दिया जाता था। वहां का