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________________ श्राठवां अध्याय [ ३१३ ] दारुणता ले व्याप्त है और जिल पर चलने से दुःखों का अन्त नहीं होता वरन् वृद्धि होती है। अज्ञानी जीव भ्रमवश जिन्हें दुःख-सुक्ति का कारण समझता है, वह वास्तव में दुःख-वृद्धि के कारण हैं। वह जिसे सुख मानता है वह वास्तव में सुखभास है। विपरीत उपचार करने से जैसे रोग की वृद्धि होती है, उसी प्रकार दुःख-विनाश के विपरीत उपाय करने से दुःख का विकास हो रहा है। मूढ़ पुरुष संसार के भोगोपभोगों और उनके साधनों को ही सुख रूप मान बैठा है और उन्हीं के भरोले दुःख से बचने का मनोरथ करता है। इस विपरीत बुद्धि को दूर करने के लिए सूत्रकार ने यहां दुःखों की उत्पत्ति का मूल बताया है-'कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्ख।' अर्थात् दुःखों के जिस प्रयल प्रवाह में प्राणी वहे जा रहे हैं उनका मूल स्रोत-उद्गम स्थान कासभोग की अभिलाषा है। दुःखों का उद्गम-स्थान समझलेने पर उनके निरोध का उपाय सहज ही सम. झा जा सकता है । काम-भोग की लालसा को अगर त्याग दिया जाय और वीतराग वृत्ति को धारण किया जाय तो समस्त दुःखों का अन्त पा सकता है। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं-'तस्संतगं गच्छद वीयरागो । अर्थात् वीतरागता की वृत्ति से शारीरिक और मानसिक समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है । राग से उत्पन्न होने वाले दुःख अराम-भाव से ही नष्ट हो सकते हैं। सूत्रकार द्वारा उपदिष्ट दुःखों के विनाश का मार्ग ही राजमार्ग है, जिस पर अग्रसर होकर, अनादि काल से, अनन्त आत्माओं ने, अपना एकान्त कल्याण किया है, अपने दुःखों का समूल उमूल किया है और सुन के अक्षय कोष पर आधिएत्य प्राप्त किया है। मूल:-देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति ते॥१८॥ छाया:-देवदानवगन्धर्वाः, यक्षराक्षसकिन्नराः। ब्रह्मचारिणं नमस्यन्ति, दुष्करं ये कुर्वन्तितम् ॥ १८ ॥ शब्दार्थः-कठिनाई से आचरण में आने वाले ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले ब्रह्म. चारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर नमस्कार करते हैं। भाष्यः-सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य पालन करने की महत्ता का यहां दिग्दर्शन कराया है। पहले यह बतलाया जा चुका है कि देव दानव से लगाकर सभी जीवधारी फास के कीचड़ में फंसे हुए हैं। जो लोग कास-भोगों की तुच्छता को समझ लेते हैं, और उनका त्याग करना चाहते हैं, वे भी मन की चंचलता और इन्द्रियों की श्रदस्यता के कारण उनका त्याग करने में असमर्थ हो जाते हैं । ऐसी अवस्था में ब्रह्मचर्य का पालन करना लचमुच ही अत्यन्त दुष्कर है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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