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मूलः - कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं,
ब्रह्मचर्य - निरूपण
सव्वस्त लोगस्स सदेवगस्त ।
जं काइयं माणसिश्रं च किंचि,
तस्संतगं गच्छ वीयरागो ॥ १७ ॥
छाया:- कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य । यत् कायिक मानसिकं च किन्चित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ||१७|| शब्दार्थः -- देवों सहित सम्पूर्ण लोक के प्राणी मात्र को कामासक्ति से उत्पन्न होने वाला दुःख लगा हुआ है। वीतराग पुरुष शारीरिक और मानसिक समस्त दुःखों का न्त करते हैं।
भाष्यः - जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, काम-वासना संसार के प्रत्येक प्राणी के हृदय में विद्यमान है । कोई भी संसारी जीव इसके चंगुल से नहीं बच सका है | क्या देवता, क्या मनुष्य और क्या पशु-पक्षी, सभी इस महान् व्याधि से ग्रस्त हैं। सभी काम-वासना से उत्पन्न होने वाली व्याकुलता से वेचैन हैं । वैमानिक देव अप्सराओं के साथ मोह-सुग्ध होकर ब्रह्म का सेवन करते हैं । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवता भी विषयों की तृष्णा के दास हैं, विषयभोग की पीड़ा से व्याप्त हैं, अत्यन्त मूर्छित हैं और काम-भोगों का सेवन करते हुए मोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं ।
चौंसठ हजार सुन्दरी स्त्रियों का स्वामी चक्रवर्त्ती, विशिष्ट पराक्रमशाली होने पर भी विषयों का दास है । वह सम्पूर्ण भरतखण्ड पर आधिपत्य प्राप्त करता है, चौदह अनुपम रत्नों और नौ निधियों का स्वामी है। उसके प्रचण्ड पराक्रम से बड़ेबड़े सम्राटों के हृदय कम्पित होते हैं और उसके चरणों में नतमस्तक होते हुए अपने को भाग्यशाली मानते हैं । फिर भी वह ' अवला ' के आगे श्रवल है । काम-वासना है 1
का दास
इस वासना के कीचड़ में फँसने से जो बचे हैं, वह वीतराग हैं । जिन्होंने भोगों की निस्सारता अपनी विवेक-बुद्धि से जान ली है, भोगों की क्षणभंगुरता और चिरकाल पर्यन्त दुःखदायकता को भलीभांति समझलिया है, जो श्रात्मानन्द में मन हैं, वे काम - भोगों की और दृष्टिपात भी नहीं करते ।
प्रत्येक प्राणी दुःख से भयभीत है, दुःख से दूर रहना चाहता है । मनुष्य, देवता आदि से लेकर निकृष्ट श्रेणी के जीवधारी सदैव इसी प्रयत्न में लगे रहते हैं कि उन्हें दुःख की प्राप्ति न हो । किन्तु दुःख के कारण क्या हैं ? दुःख का स्वरूप क्या है ! दुःख का प्रतीकार किस प्रकार हो सकता है ? इन बातों को भलीभांति न समझने से या विपरीत समझने से, यह होता है कि वे उसी मार्ग पर चलते हैं, जो दुःखों की