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धर्म स्वरूप वर्णन . किसी ने कहा भी है
यथा धेनु सहस्रेषु, बत्लो विन्दति मातरम्। . . . . . . . तथा पूर्वकृतं कर्म, कर्तारमनुगच्छति ॥ .. अर्थात् हजारों गायों में से बछड़ा अपनी माता के पास जा पहुँचता है उसी प्रकार यूर्वकृत कर्म, कर्ता का पीछा करता है। - श्रतएव भव्य जीवों को सदा वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित चारित्र धमें अनुसरण करना चाहिए और विपरीत श्रद्धा का परित्याग करके कभी उसके अनुसार व्यवहार नहीं करना चाहिए। प्रात्मकल्याण का यही राजमार्ग है।
मूला-बाला किड्डा य मंदा य, बला पन्ना य हायणी । . ./ पवंचा पभारा य, मुम्मुही सायणी तहा ॥३॥
छाया:-बाला क्रीडा च मन्दा च, बला प्रज्ञा च हायनी ।
प्रपञ्चा प्रारभार। च, मुन्मुखी शायिनी तथा ॥ ३ ॥ शब्दार्थ-मनुष्य की दस दशाएँ हैं-(१) बाल-अवस्था (२) क्रीड़ा-अवस्था (३) मन्दावस्था (४) बलावस्था (५) प्रज्ञावंस्था (६) हायनी-अवस्था (७) प्रपञ्च -अवस्था । (८) प्राग्भार-अवस्था (६) मुम्मुखी-अवस्था और (१०) शायनी अवस्था। . . .
भाध्य-मनुण्य भव की प्राप्ति का. प्ररूपण करने के पश्चात् मनुष्य की दश . दशानों का निरूपण यहां किया गया है । दशाओं का यह विभाग आयु के क्रम से समझना चाहिए अर्थात् जिस समय मनुष्य की जितनी श्रायु हो. उस श्रायु को दस विभागों में बराबर-बराबर विभक्त करने से दस अवस्थाएँ निष्पन्न होती हैं। उदाहरणार्थ-सौ वर्ष की आयु हो तो दल दस वर्षों की दस अवस्थाएँ समझना चाहिए । इन अवस्थाओं का विभाजन शारीरिक एवं मानसिक-दोनों दृष्टियों को. लक्ष्य रखकर किया गया है। दस अवस्थाओं का परिचय इस प्रकार है:
(१) वाल्यावस्था-जिल अवस्था में किसी प्रकार का चिंक नहीं होता, खाने पीने, धनोपार्जन करने आदि की कुछ चिन्ता नहीं रहती है।
(२) क्रीडावस्था - दस वर्ष से लगाकर वीस वर्ष पर्यन्त क्रीड़ा-अवस्था रहती . है, क्योंकि इस अवस्था में खेलने-कूदने की धुन सवार रहती है।
. (३) मन्दावस्था-यह अवस्था बीस वर्ष से तीस वर्ष तक रहती है। इस अवस्था में पूर्वजों द्वारा संचित सम्पत्ति और भोगोपभोग की सामग्री को ही भोगन की इच्छा रहती है और नवीन अर्थ- धन के उपार्जन में उत्साह नहीं होता है, इस लिए इस अवस्था को मन्दावस्था कहा गया है। ... : (४). बल-अवस्था-तीस से चालीस वर्ष तक बल-अवस्था रहती है। क्योंकि इस अवस्था में यदि अस्वस्थता आदि कोई विशेष वाधा उपस्थित न हो तो मनुष्य बलवान होता है।