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तृतीय अध्याय .
. [ १३५ ] अर्थात् शिक्षा से युक्त सुव्रती गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर पक्ष-लोक.अर्थात् स्वर्ग में जाता है। . इस प्रकार यह निश्चित है कि संयमासंयम-देशविरति अर्थात् अणुव्रतों के पालन से देव गति प्राप्त होती है । फिर यहां मनुष्य गति की प्राप्ति का कथन किस प्रकार संगत हो सकता है ?
समाधान-यहां अनन्तर भव की अपेक्षा कथन नहीं किया गया है। अणुव्रतों का पालन कर के देवगति होने पर फिर मनुष्य योनि की प्राप्ति होती है, ऐसा आशय समझना चाहिए । अथवा यहां जो सुव्रतों का पालन करना बताया है वह ऐसी अन्य तीर्थिकों की अपेक्षा से है जो सम्यक्त्वधारी तो नहीं हैं, फिर भी लोक प्रतीत सत्य बोलते हैं, शीलव्रत का पालन करते हैं और निर्जल उपवास आदि करते हैं। ऐसे व्रतों का पालन करने वाले अन्यतीर्थी मनुष्य, मृत्यु के पश्चात् फिर मनुष्य योनि । प्राप्त करते हैं। . विविध प्रकार की शिक्षा से यहां उन सदगुणों का ग्रहण करना चाहिए, जो मनुष्य गति की प्राप्ति में सहायक होते हैं । जैसे-अभिमान न होना, मायाचार न होना, संतोष का भाव रखना, परिग्रह को व्यर्थ आवश्यकता से अधिक न रखना, अनावश्यक प्रारंभ न करना, श्रादि । इन सब कारणों से जीव मानव-जन्म प्राप्त करता है।
क्या यह संभव है कि कोई जीव किसी कर्म का उपार्जन करे और उसे उसीके अनुरूप फल की प्राप्ति न हो ? इस शंका का निरास करने के उद्देश्य से सूत्रकार ने कहा है-'कम्मसच्चा हु पाणियो।' अर्थात् प्राणी कर्म-सत्य हैं । जीव जैसे कर्म करता है उसे वैसी ही ग्मति प्राप्त होती है। जैसे बंवूल बोने वाले को श्राम नहीं मिलता और श्राम बोने वाले को वंचूल नहीं मिलता. उसी प्रकार अशुभ कर्म करने वाले को शुभ फल और शुभ कर्म करने वाले को अशुभ फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।
जो कर्म अशुभ है, उसे चाहे अशुभ समझकर किया जाय चाहे शुभ समझ कर किया जाय, पर उसका फल अशुभ ही होगा । अनेक लोग धर्म समझकर हिंसा
आदि अधर्म का आचरण करते हैं। यही नहीं, धर्म के लिए किये जाने वाले पाप को ब पाप ही नहीं समझते । तात्पर्य यह है कि जगत् में अनेक ऐसी विपरीत इष्टियां हैं, जिनके कारण अधर्म, धर्म प्रतीत होता है। इसलिए अधर्म का फल धर्म रूप कदापि नहीं हो सकता । धर्म मानकर अधर्म का श्राचरण करने वाले लोग चाहे. यथार्थता को न समझे, फिर भी उन्हें अधर्म सेवन का फल अशुभ ही प्राप्त होगा। हां, अज्ञात भाव और मातभाव से कर्म के प्रास्त्रव और बंध में अंतर पड़ता है । ' यह जीव है, मैं इसे मारता हूं' यह समझकर हिंसा करना ज्ञात हिंसा है और प्रमाद या पागलपन के कारण हिंसा हो जाना अज्ञात हिंसा है । इसके फल में अन्तर होता है, पर अज्ञात होने के कारण हिंसा का फल, अहिंसा का पाचरण करने से मिलने वाले फल के समान नहीं हो सकता।