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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
की तरफ फेंक दिया। राजकुमार अपने स्थान पर आकर सो गया। शृगाली फिर चिल्लाने लगी। राजकुमार ने नैमित्तिक से इसका कारण पूछा। उसने कहा-यह अपनी कृतज्ञता प्रकाश करती हुई कहती है-हे राजकुमार ! तुमने बहुत अच्छा किया । नैमित्तिक का वचन सुन कर राजकुमार बहुत खुश हुआ।
मन्त्रीपुत्र इस सारी बातचीत को चुपचाप सुन रहा था। उसने विचार किया कि राजकुमार ने सौ मोहरें कृपणभाव से ग्रहण की हैं या वीरता से ग्रहण की हैं। यदि उसने कृपणभाव से ग्रहण की हैं तो यह समझना चाहिए कि इसमें राजा के योग्य उदारता
और वीरता आदि गुण नहीं है। इसे राज्य प्राप्त नहीं होगा। फिर इसके साथ फिर कर व्यर्थ कष्ट उठाने से क्या फायदा? यदि राजकुमार ने ये मोहरें अपनी वीरता बतलाने के लिये ग्रहण की हैं तो इसे राज्य अवश्य मिलेगा।
ऐसा सोचकर प्रातःकाल होने पर मन्त्रीपुत्र ने राजकुमार से कहा-मेरा पेट बहुत दुखता है। मैं आपके साथ नहीं चल सकूँगा । इसलिए आप मुझे यहाँ छोड़कर जा सकते हैं । राजकुमार ने कहा--मित्र ! ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं तुम्हें छोड़ कर नहीं जा सकता। तुम सामने दिखाई देने वाले गांव तक चलो। वहाँ किसी वैध से तुम्हारा इलाज करवायेंगे। मन्त्रीपुत्र वहाँ तक गया। राजकुमार ने वैद्य को बुलाकर उसे दिखाया
और कहा-ऐसी बढ़िया दवा दो जिससे इसके पेट का दर्द तत्काल दूर हो जाय ! यह कह कर राजकुमार ने दवा के मूल्य के रूप में वैद्य को वे सौ ही मोहरें दे दी।
राजकुमार की उदारता को देखकर मन्त्रीपुत्र को यह दृढ़ विश्वास हो गया कि इसे अवश्य राज्य प्राप्त होगा। थोडे दिनों में ही राजकुमार को राज्य प्राप्त हो गया।