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श्री जैन सिद्धन्त बोल संग्रह, छठा भाग
पर बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ । सर्प पकड़ने वाले गारुड़ियों को चुलाकर राज्य के सब सर्पों को मार देने की आज्ञा दी । सर्पों को मारते हुए वे लोग उस दृष्टिविष सर्प के बिल के पास पहुंचे उन्होंने उसके बिल पर औषधि डाली । औषधि के प्रभाव से वह सर्प बिल से बाहर खींचा जाने लगा। 'मेरी दृष्टि से मुझे मारने वाले पुरुषों का विनाश न हो जाय' ऐसा सोचकर वह पूंछ की तरफ से बाहर निकलने लगा। वह ज्यों ज्यों बाहर निकलता गया त्यों त्यों वे लोग उसके टुकड़े करते गये किन्तु उसने समभाव रखा। उन लोगों पर लेश मात्र भी क्रोध नहीं किया । परिणामों की सरलता के कारण वहाँ से मर कर वह उसी राजा के घर पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उसका नाम नागदत्त रखा गया। बाल्यावस्था में उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे उसने दीक्षा ले ली।
विनय, सरलता, समभाव आदि अनेक असाधारण गुणों के कारण वह देवों का वन्दनीय हो गया। उसे बन्दना करने के लिये देव भक्ति पूर्वक श्राते थे । पूर्व भव में तिर्यश्च होने के कारण उसे भूख बहुत लगती थी । विशेष तप उससे नहीं होता था ।
उसी गच्छ में चार एक एक से बढ़ कर तपस्वी साधु थे। नागदत्त उन तपस्वी मुनियों की खूब विनय वैयावृत्य किया करता था । एक बार उसे वन्दना करने के लिए देवता आये। यह देख कर उन तपस्वी मुनियों के हृदय में ईर्षा उत्पन्न हो गई।
एक दिन नागदत्त मुनि अपने लिए गोचरी लेकर आया । उसने विनयपूर्वक उन मुनियों को आहार दिखलाया। ईर्पावश उन्होंने उसमें थूक दिया।
उपरोक्त घटना को देखकर भी नागदत्त मुनि शान्त बना रहा। उसके हृदय में किसी प्रकार का चोभ उत्पन्न नहीं हुआ।