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श्री जैन सिद्धान्त बाले संग्रह, छठा भोग पाये जाते हैं इत्यादि बातों को बताने के लिये बीस द्वार कहे गये हैं । वे ये हैं
(१) क्षेत्र द्वार--जन्म और सद्भाव की अपेक्षा क्षेत्र के दो भेद हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र को अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति का जन्म और सद्भाव पांच भरत और पांच ऐरावत में ही होता है, महाविदेह क्षेत्र में नहीं । परिहार विशुद्धि चारित्र वालों का संहरण नहीं होता है।
(२) काल द्वार--परिहार विशुद्धि चारित्र को अङ्गीकार करने वाले व्यक्तियों का जन्म अवसर्पिणी काल के तीसरे और चौथे बारे में होता है और इस चारित्र का सद्भाव तीसरे, चौथे और पांचवें आरे में पाया जाता है । उत्सर्पिणी काल में दूसरे, तीसरे
और चौथे आरे में जन्म तथा तीसरे और चौथे बारे में सद्भाव पाया जाता है। नोअवसर्पिणी नोउत्सर्पिणी रूप काल में परिहार विशुद्धि चारित्र वालों का जन्म और सद्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि यह काल महाविदेह क्षेत्र में ही होता है और वहाँपरिहार विशुद्धि चारित्र वाले होते ही नहीं हैं।
(३) चारित्र द्वार-चारित्र द्वार में संयम के स्थानों का विचार किया गया है। सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र के जघन्य स्थान समान परिणाम होने से परस्पर तुल्य हैं। इसके बाद असंख्यात लोकाकाशप्रदेश परिमाण संयम स्थानों के ऊपर परिहार विशुद्धि चारित्र के मंयमस्थान हैं। वे भी असंख्यातलोकाकाश प्रदेश परिमाण होते हैं और पहले के दोनों चारित्र के संयम स्थानों के साथ अविरोधी होते हैं । परिहार विशुद्धि चारित्र के बाद असंख्यात संयम स्थान सूक्ष्मसम्पराय के और यथाख्यात चारित्र का एक होता है।
(४) तीर्थ द्वार--परिहार विशुद्धि चारित्र तीर्थ के समय में ही होता है। तीर्थ के विच्छेद काल में अथवा तीर्थ अनुत्पत्ति काल में