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श्री सेठिया जैन ग्रन्थालय
हो तो उसे अकेली न जाना चाहिए। दो तीन या चार साध्वियों को मिल कर बाहर जाना कल्पता है।
(२०)साधु साध्वियों को पूर्व दिशा में अंग देश एवं मगध देश, दक्षिण में कौशाम्बी, पश्चिम में स्थूणा और उत्तर में कुणाला नगरी तक गिहार काना कल्पता है । इसके आगे अनार्य देश होने से यहीं तक बिहार करने क लिये कहा गया है । इसके आगे साधु उन क्षेत्रों में बिहार कर सकते हैं जहाँ उनके ज्ञान दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो।
ऊपर जो कल्प दिये हैं वे सभी उत्सर्ग मार्ग से हैं और साधु को उसके अनुसार आचरण काना ही चाहिये हत्कल्प सूत्र की नियुक्ति एव भाष्य में कई कल्पों के लिये बताया है कि ये कल्प अपवाद मार्ग से हैं और निरुपाय होने पर ही साधु यदि इनका आश्रय ले एवं अपवाद सेवन करे तो प्रायश्चित्त आता है।
(सनियुक्ति लधु भाष्य वृत्तिक वृहत्कल्प सूत्र, प्रथम उद्देशा) ६०५-परिहार विशुद्धि चारित्र के बीस हार जिस चारित्र में परिहार (तप विशेष) से कर्मनिर्जरा रूप शुद्धि होती है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। इनके निर्विश्वमान
और निर्विष्टकायिक दो भेद हैं। नौ साधुगण बना कर इसे अङ्गीकार करते हैं और अठारह महीने में यह तप पूरा होता है। स्वयं तोर्यकर के पाम या जिसने तीर्थङ्कर के पास यह चारत्र अङ्गीकार किया है ऐसे मुनि के पास यह चारित्र अङ्गीकार किया जाता है । परेहार विशुद्धि चारित्र के स्वरूप एवं विधि का वणन इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग वोल नं० ३१५ में दिया गया है। परहार विशुद्धि चामलको धारण करने वाले मुनि किन क्षेत्र पार किस काल में