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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
परिहार विशुद्धि चारित्र नहीं पाया जाता है ।
( ५ ) पर्याय द्वार - पर्याय के दो भेद हैं- गृहस्थ पर्याय (जन्म पर्याय) और यति पर्याय (दीक्षा पर्याय)। गृहस्थ (जन्म) पर्याय जघन्य नौ वर्ष और यति (दीक्षा) पर्याय जघन्य बीस वर्ष और उत्कृष्ट दोनों देशोन करोड़ पूर्व वर्ष की हैं। यदि कोई नौ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ले तो बीस वर्ष साधु पर्याय का पालन करने के पश्चात् वह परिहार विशुद्धि चारित्र अंगीकार कर सकता है । परिहार विशुद्धि चारित्र की जघन्य स्थिति अठारह मास है और उत्कृष्ट स्थिति देशोन करोड़ पूर्व वर्ष है ।
(६) आगम द्वार - परिहार विशुद्धि चारित्र को अङ्गीकार करने वाला व्यक्ति नये आगमों का अध्ययन नहीं करता किन्तु पहले पढ़े हुए ज्ञान का स्मरण करता रहता है । चित्त एकाग्र होने से वह पूर्व पठित ज्ञान को नहीं भूलता । उसे जघन्य नवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु और उत्कृष्ट कुछ कम दस पूर्व का ज्ञान होता है।
(७) वेद द्वार - परिहार विशुद्धि चारित्र के वर्तमान समय की अपेक्षा पुरुष वेद और पुरुष नपुंसक वेद होता है, स्त्री वेद नहीं, क्योंकि
को परिहार विशुद्धि चारित्र की प्राप्ति नहीं होती है । भूतकाल की अपेक्षा पूर्व प्रतिपन्न अर्थात् जिसने पहले परिहार विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार किया था यदि वह जीव उपशमश्रेणी या क्षपक श्रेणी में हो तो वेद रहित होता है और श्रेणी की प्राप्ति के अभाव में वह वेद सहित होता है ।
(८) कल्प द्वार - कल्प के दो भेद हैं-स्थित कल्प और अस्थित कल्प | निम्न लिखित दस स्थानों का पालन जिस कल्प में किया जाता है उसे स्थित कल्प कहते हैं। दस स्थान ये हैं- अचेलकत्व औद्देशिक, शय्यातर पिएड, राजपिएड, कृतिकर्म व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासकल्प और पर्युषणा कल्प ।
* नपुंसक के दो भेद हैं१- पुरुष नपुंसक और २ -स्त्रीनपुंसक । यहाँ पुरुष नपुंसक का ग्रहण है, स्त्री नपुंसक का नहीं । क्योंकि स्त्री नपुंसक वेद मे परिहार विशुद्धि चारित्र नही होता है ।