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श्री जन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
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वाला जाते समय दो उत्पात करके जाता है किन्तु एक ही उत्पात से वापिस अपने स्थान पर आ जाता है। ___ (११) श्राशीविष लब्धि-जिनके दादों में महान् विप होता है वे आशीविष कहे जाते हैं। उनके दो भेद हैं-कर्म आशीविष
और जाति आशीविप । तप अनुष्ठान एवं अन्य गुणों से जो आशीविप की क्रिया कर सकते हैं यानी शापादि से दूसरों को मार सकते हैं वे कर्म आशीविप हैं। उनकी यह शक्ति आशीविप लब्धि कही जाती है । यह लब्धि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्यों के होती है।
आठवें सहस्रार देवलोक तक के देवों में भी अपर्याप्त अवस्था में यह लब्धि पाई जाती है। जिन मनुष्यों को पूर्वभव में ऐसी लब्धि प्राप्त हुई है वे आयु पूरी करके जब देवों में उत्पन्न होते हैं तो उन में पूर्वभव में उपार्जन की हुई यह शक्ति बनी रहती है। पर्याप्त अवस्था में भी देवता शाप आदि से जो दूसरों का अनिष्ट करते हैं वह लन्धि से नहीं किन्तु देव भव कारण के सामर्थ्य से करते हैं और वह सभी देवों में सामान्य रूप से पाया जाता है ।
जाति विप के चार भेद हैं-विच्छू, मेंढक, सॉप और मनुष्य । ये उत्तरोत्तर अधिक विप वाले होते हैं। विच्छू के विप से मेंढक का विष अधिक प्रबल होता है । उससे सर्व का विप और सर्प की अपेक्षा भी मनुष्य का विष अधिक प्रबल होता है। विच्छू, मेंढक, सर्प और मनुष्य के विष का असर क्रमशः अर्द्ध भरत, भरत, जम्बूद्वीप और समयक्षेत्र (अढाई द्वीप) प्रमाण शरीर में हो सकता है। _ (१२) केवली लब्धि-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्तराय इन चार घाती कमों के क्षय होने से केवलज्ञान रूप लब्धि प्रगट होती है । इसके प्रभाव से त्रिलोक एवं त्रिकालवती समस्त पदार्थ हस्तामलकवत् स्पष्ट जाने देखे जा सकते हैं ।
(१३) गणधर लब्धि-लोकोत्तर ज्ञान दर्शन आदि गुणों के