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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह छठा भाग
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अन्तर में और श्री शान्तिनाथ स्वामी से श्रीवीरस्वामी पर्यन्त नौ तीर्थंकरों के अन्तिम आठ अन्तर में तीर्थ का विच्छेद नहीं हुआ । श्री सुविधिनाथ स्वामी से श्री शान्तिनाथ स्वामी पर्यन्त आठ तीर्थंकरों के मध्यम सात अन्तर में नीचे लिखे समय के लिये तीर्थ का विच्छेद हुआ |
१. श्री सुविधिनाथ और शीतलनाथ का अन्तर २. श्री शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ का अन्तर ३. श्री श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य का अन्तर ४. श्री वासुपूज्य और विमलनाथ का अन्तर ५. श्री विमलनाथ और अनन्तनाथ का अन्तर ६. श्री अनन्तनाथ और धर्मनाथ का अन्तर ७. श्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ का अन्तर
पाव पल्योपम
पाव पल्योपम
पौन पल्योपम
पाव पल्योपम
पौन पल्योपम
पाव पल्योपम पाव पल्योपम
भगवती शतक २० उद्देशे में तेईस अन्तरों में से आदि और अंत के आठ आठ अन्तरों में कालिक श्रुत का विच्छेद न होना कहा गया है । और मध्य के सात अन्तरों में कालिक श्रुत का विच्छेद होना बतलाया है। दृष्टिवाद का विच्छेद तो सभी तीर्थंकरों के अन्तर काल में हुआ है । (प्रवचन सारोद्धार ३६ द्वार) तीर्थंकरों के तीर्थ में चक्रवर्ती और वासुदेव तीर्थंकर के समकालीन जो चक्रवर्ती, वासुदेव आदि होते हैं उनके तीर्थ में कहे जाते हैं । जो दो तीर्थंकरों के अन्तर काल में होते हैं वे अतीत तीर्थंकर के तीर्थ में समझे जाते हैं । दो तित्थेस सकिय जिणा तो पंच केसी जुया । दो चकाहिव- तिरिए चक्कित्र जिणा तो केसि चक्की हरी || तित्थेसो इग, तो सचक्कित्र जिणो केसी सचक्की जिणो । चक्की केसव संजुत्र जिणवरो, चक्की अ तो दो जिणा । भावार्थ - श्री ऋषभदेव स्वामी और अजितनाथ स्वामी ये दो