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१५२ मी-सेठियोजना ग्रन्थमाली ammmmmmmmmmmmmmmmmmmmm जियसन सुबुद्धि एवं चयासी इच्छामिण देवाणुप्पियाँ! तब अंतिए जिण . वयण णिसामित्तएतएण, सुबुद्धी जियसत्तुस्स. विचित्त केवलिपएणते चाउज्जीम धम्म परिकहेई, तमाइक्खइस जहा जीवावमति जाव पच अणुव्वयाई । तएणं जियसत्तः सुबुद्धिस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म हत? सुबुद्धि-अमच्च एवं क्यासी सद्दहामि ण देवाणुपिया। णिग्गं पावयणं जाव से जहेयन्तु अयह त इच्छामि णं तक अंतिए चाणुव्वईय सत्त सिक्खोवइयं जावं उपसंपज्जिताणं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्रियामा पडिबंध करेह । तएणं जितसत्त, सुबुद्धिस्स, अमञ्चस्स अंतिए पंचागुवइयं जाव दुवालसविहः साव्य, सम्म पडिवज्जई। तएणं जियसत्तू समणोवासए अभिगय जीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ.. __ भावार्थ:-जितशत्रु राजा ने सुवृद्धि अमात्यं को बुलाकर यह कही-है सुबुद्ध । तुमनें विद्यमान, तत्त्वरूप इन सत्य भावों को कैसे जाना ? इसके बाद सुबुद्धि ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा है स्वामिन् ! मैंने जिनवचन से विद्यमान तच रूप इन सत्य भावों को जाना है। यह सुनकर जितशत्रु ने सुबुद्धि से इसे प्रकार कहा-हे देवानुप्रियं! मैं तुमसे जिनवचन सुनना चाहता हूँ। इसके बाद सुबुद्धि न जितशत्र से विचित्र केवलिप्ररूपित चार मिहावत रूप धर्म कही और यह भी बताया कि किस प्रकार जीवों के कर्मबन्धन होता है यावत् पांच अणुव्रत कहे । राजा जितशत्रु सुवुद्धि से धर्म सुनकर सन हुआ ! उसने सुबुद्धि :अमात्य से कहा हे देवानुप्रियः! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा, रुचि रखता हूँ एवं उस पर विश्वास करता हूँ। यावत :यह उसी प्रकार है जैसा कि तुम कहते हो। इसलिये में चाहता हूँ कि तुमसे पाँच अणुव्रत एवं सात-शिक्षावत:अङ्गीकार