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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
mmmming कर विचरूँ। सुबुद्धि ने कहा-हे देवानुरिय ! आपको जैसे सुख हो वैसा करे । इसके बाद जितश राजा ने सुवुद्धि प्रधान से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षात्रत, ये श्रावक के बारह व्रत धारण किये। इसके बाद जितशत्रु श्रमणोपासक जोब अजीय के स्वरूप को जानकर यावन् साधुओं को आहारादि देते हुए विचरता है।
ज्ञातात्र के इस पाठ से सुबुद्धि.'प्रधान का जैन शास्त्रों का जानना सिद्ध है । यहाँ शास्त्रकार ने सुत्रुद्धि प्रधान के लिये ठीक उसी भाषा का प्रयोग किया है जैसी भाषा का प्रयोग ऐसे प्रकरणों में साधु. के लिये किया जाता है। ..
औपपातिक सूत्र ४१३ में श्रावक के लिये 'धम्मक्खीई' (भव्यों को धर्म प्रतिपादन करने वाला) शब्द का प्रयोग किया गया है। यदि श्रावक को शास्त्र पढ़ने का ही अविकार न हो तो वह धर्म का प्रतिपादन कैसे कर सकता है ? ...
यह कहा जा सकता है कि यहाँ पर अर्य रूप शास्त्र समझना चाहिये! पर ऐसा क्यों समझा जाय ? यदि शास्त्रों में श्रावक को शास्त्र पढ़ने की ससट मना होती तो उससे मेल करने के लिये इनकी अर्थरूप व्याख्या करना युंक्त था। पर जब कि शास्त्रों में कहीं भी निषेत्र नहीं है, बल्कि विधि को समर्थन करने वाले पाठ स्थान पर स्थान मिलते हैं, जिनकी भाषा में 'साधु के प्रकरण में
आई हुई भाषा से कोई फर्क नहीं है। फिर ऐसा अर्थ करना कैसे राही कहा जा सकता है। ' इस सम्बन्ध में व्यवहार सूत्र का नाम लेकर यह भी कहा जाता है कि जा साधुओं के लिये भी निश्चित काल की दीक्षा के बाद ही शास्त्र विशेष पढ़ने का उल्लेख मिलता है । फिर श्रावक के तो दीक्षा पर्याय नहीं होती इसलिये वह कैसें पढ़ सकता है ? इसका उत्तर यह है कि व्यवहार सूत्र का उन नियम भी