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श्री जैन सिद्धान्त कोल संग्रह, छा भाग १५,१
-marrrrrrammmm ..... ramremramm में जगह जगह ऐसे पाठ मिलते हैं जिससे मालूम होता है कि पहले भी श्रावक शास्त्र पढ़ते थे। लिमिव शास्त्रों से कुछ पाठ दीचे उद्धत किये जाते हैं--नंदी मन्त्र ५२ में एवं समवायांग सूत्र १४२ में उपासकदशा का विषयवान मारते हुए लिखा है-'मुयपरिग्गहा, तबोवहाणाई' अर्थात् श्रावकोकानात ग्रहण, उपधान शादि तप ।। इससे प्रतीत होता है कि भगवान महावीर के श्रावक शाल पढ़ते थे। उत्तराध्ययन में समुद्रपालीय नामक २१ वें अध्ययन की दूसरी गाथा में पालित श्रावक का वर्णन करते हुए लिखा है--
“णिग्गथे पायणे, साधए से वि कोविए ' अर्थात्-वह पालित आयक निग्रन्थ प्रवचन में पंडित था। इसी सूत्रं के २२ – अध्ययन में राजसती के लिये शास्त्रकार ने 'बहुस्सुया' शब्द का प्रयोग किया है। गार्था इस प्रकार है.. सा पव्वईया संती, पवावेसी तहिं बहु । . - सयणं परियणं चेव, सीलवंता वहुस्सुपा-॥३२॥ : - भावार्थ-शीलवती एवं बहुश्रुता उस. राजमती ने दीक्षा लेकर वहाँ..और भी अपने स्वजन एवं परिजन को दीक्षा दिलाई। '. ये दोनों पाट भी यही सिद्ध करते हैं कि श्रावक सूत्र पढ़ते थे। एव यह वात शास्त्रकारों को अभिमत है।
... • ज्ञातासूत्र के १२,३:उदकज्ञात नामक अध्ययन में :सुर्वृद्धि शवक ने जितशत्रु- राजा को जिनप्रवचन का उपदेश दिया। सूत्र का पाठ इस प्रकार है
सुबुद्धिं 'अमचे.' सदायित्ता एवं · वयासी-सुबुद्धी ! एएं णं तुमे संता. तच्चा नाव संभूया भावो को उवलद्धा ? तएणं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं बयांसी-एएणं सामी"! मए संता. जाव : भावा जिणवयणाओं उबलेवा ।। तएणं