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से एवं षष्ठ और अष्टम का अर्थ दो और तीन उपवासों से हैं ।' इस टीका से भी स्पष्ट है कि 'चतुर्थ भक्त'' का अर्थ उपवास होता है। (१६) प्रश्न:- हाथ या वस्त्रादि मुँह पर रखे बिना खुले मुँह कही गई भाषा सावय होती है या निरवद्य १
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उत्तर - हाथः अथवा वस्त्र च्यादि से मुँह ढके बिना अयतनापूर्वक जो भाषा बोली जाती है उसे शास्त्रकारों ने साबंध कहीं है । यतना बिना खुले मुँह बोलने से जीवों की हिसा होती है । भगवती सूत्र के सोलहवें शतक दूसरे उद्देशे में शक्रेन्द्र की भाषा के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं । वहाँ शक्रेन्द्र को सम्यग्वादी कहा है। उसकी भाषा के साध निरवद्य विषयक प्रश्न के उत्तर में यह कहा गया हैगोयमा ! जाहे सक्के देविंदे देवराया सुहुमकाय अणिहित्ताणं भासं भास ताहे सक्के देविदे देवराया, सावज्जं ' भासं भासई, ' 'जाहे 'सक्के' देविंदे 'देवराया. सुहुमकार्यं निजूहित्ता गं 'भासं भासह ताहे णं संक्के देविंदे देवराया अणवज्जं भासं 'भाई'
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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अर्थ- हे गौतम! जिस समय शक्रं देवेन्द्र देवराजा सूक्ष्मकोय. अर्थात् हाथ या वस्त्र आदि मुँह पर दिये बिना बोलता है उस समय वह सावध भाषा बोलता है और जिस समय वह हाथ या वस्त्र आदि. मुँह पर रखकर बोलता है उस समय वह निरवद्य भाषा बोलता है "इतकी टीका इस प्रकार है- 'हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाषमाणस्य जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति अन्या तु सावद्या' । अर्थात् हाथ आदि से मुँह ढककर बोलने वाला जीवों की रक्षा करता है इसलिये उसकी भाषा अनवद्य है और दूसरी भाषा सावध है ।
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(१७) प्रश्न क्या श्रावक का सूत्र पढ़ना शास्त्र सम्मत है ?.
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उत्तर -- श्रावक श्राविका को सूत्र न पढना चाहिये, ऐसा कहीं भी जैन शास्त्रों में उल्लेख नहीं मिलता। इसके विपरीत शास्त्रों