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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग १४७
münümummmmmmmmina. प्रभावशाली यक्ष यक्षिणी को मानने पूजने में क्या दोष है - उत्तर-मोक्ष के लिये कुदेव को देव मानने में मिथ्या है इस दृष्टि से यह प्रश्न किया गया है और यह सच भी है। कहाँभी है
"अदेवे देवबुद्धि यो; गुरुधीरगुरौ च या।। ' अधम धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ . __ भावार्थ-- अदेव में जो. देव बुद्धि है; अगुरु में जो गुरुबुद्धि है तथा अधर्म में जो धर्मबुद्धि है, यह विपरीत होने से मिथ्यात्व है। पर दीर्घदृष्टि से देखा जाय तो इसमें दूसरे अनेक दोपों की संभावना है इसलिए लौकिक दृष्टि से भी इसे उपादेय नहीं कहा जा सकता पर इसका.त्यांग ही करना चाहिये । प्रायः इस समय के लोग मन्दबुद्धि एवं वक्रं होते . हैं और कई भोलें भी। ये लोग समझदार श्रावक को यक्षादि की पूजा करते हुए देखकर यह सोचते हैं, कि ऐसे जानकार धर्मात्मा श्रावक भी इन्हें पूजते हैं तो इसमें अवश्य धर्म होता होगा। वे किसी आशय से पूजते हैं यह न तो वे जानते हैं और न उसे जानने का प्रयत्न ही करते हैं। फलतः यह पूजा उन जीवों में मिथ्यात्व बढ़ाती है। दूसरे जीवों में मिथ्यात्व पैदा करने का फैल शास्त्रकारों ने दुर्लभंबोधि कहा है। अण्णेसि सत्ताणं, मिल्छतं जो जड़ मूढप्पा ।... सो तेण णिमित्तेणं, न लहई बोहिं जिणाभिहियं ॥
(. अधि. २ श्लो० २२ पृ. ३६) भावर्थ-जो अज्ञानी दूसरे लीवों में मिथ्यात्व उत्पन्न करता है चहं इसके फलस्वरूप जिन प्ररूपित बोधियानी सम्यक्त्व नहीं पाता। इसकेसमर्थन में यह भी कहा जाता है कि विशुद्ध सम्यक्त्वधारी रावण, कृष्ण, श्रेणिक अभयकुमार भादिने भी लौकिक अर्थ के लिये विद्या देवता आदि की आराधना की थी। पर यह आलम्बन भी ठीक नहीं हैं। 'चौथे आरे के पुरुष न आजकल की तरह अज्ञानी थे और न