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. श्री सेठिया
दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त दी गई है । प्रज्ञापना सूत्र के तेईसवें कर्मप्रकृति पद सूत्र २९४ वें में सांतावेदनीय की ईर्यापथिक बंध की अपेक्षा अंजघन्य उत्कृष्ट दो समय की एवं संपराय बंध की अपेक्षा जघन्य वारह मुहूर्व की स्थिति कही हैं। उत्तराध्ययन में चार कर्मों की जघन्य स्थिति एक साथ कहने से अन्तर्मुहूर्त कही है। दो समय से लेकर मुहूर्त में एक समय कम हो तब तक का काल अन्तर्मुहूर्त कहलाता है। उक्त अन्तर्मुहूर्त का अर्थ, जघन्य अन्तर्मुहूर्त अर्थात् दो समय करने से प्रज्ञापनों सूत्र के पाठ के साथ उत्तराध्ययन सूत्र के पाठ की संगति हो जाती है।
(६)प्रश्न-कल्पवृक्ष सचित्त हैं या अवित्त ? यदि सचित्त हैं तो क्या ये वनस्पति रूप हैं अथवा पृथ्वी रूप ? ये स्वभाव से ही विविध परिणाम वाले हैं या देव अधिष्ठित होकर विविध फल देते हैं ?
उत्तर-कल्पवृक्ष सचित्त है। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध.की पीठिका में संचित्त के द्विपद, चतुष्पद और अपद, ये तीन भेद बताये हैं और 'अपदेषु कल्पवृक्षः' कहा है अर्थात्, अपद सचित्त वस्तुओं में कल्पवृक्ष हैं । ये कन्यवृत वनस्पति रूप एवं स्वाभाविक परिणाम वाले हैं। जीवाभिगन सूत्रको तीसरी प्रतिपत्ति में एकोरुक द्वीप का वर्णन करते हुए दस कल्पवृक्षों का वर्णन किया है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के दूसरे वक्षस्कार में यही वर्णन उद्धृत किया गया है। मत्तंग कल्पवृक्ष के विषय में टीका में लिखा है कि ये वृक्ष हैं एवं प्रभूत मद्य प्रकारों से सहित हैं। इनकी यह परिणति विशिष्ट क्षेत्रादि की सामग्री द्वारा स्वभाव से होती है किन्तु देवों की शक्ति इसमें काम नहीं करती। इनके, फल मद्य रस से भरे हाते हैं। पकने पर ये फट जाते हैं और इनमें से मद्य चूता है.। यही बात प्रवचन सारोद्धार १७६ द्वार की टीका में कही है। योगशास्त्र