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पाला भा
मिथ्यादृष्टि कहा गया है।
१४८: श्री सेठिया-जन ग्रन्थमाला fre ramimmmmmmmmmmm वक्रजड़ ही। संभक्तमु उनमें आजकल की तरह देखादेखी की प्रवृत्ति भी-नरही हो अरिहन्त धर्म की विशेषता सभी को ज्ञात थी। परम्परागत दोषों की संभावना न देख उन्होंने अपवाद रूप से विद्याराधन आदि किये होंगे। इसलिये इससे इसका विधान नहीं किया आ सकता। गिरने के लिये. दूसरे का आलम्बन लेने वाला भी जालिज मिच्छादिट्ठी जे य परालंबणाई घिपति,। 'भगवती सूत्र शतक २-उद्देशा । सू. १०७ में तुंगिया नगरी के आवकों का वर्णन करते हुए असहेज्जा विशेषण दिया है । टीकाकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है- 'असाहाय्याः प्रापद्यपि देवादिमाहायकानपेक्षाः, स्वयं कृतं कम स्वयमेव भोक्तव्यमित्य दीन वृतयः'' अर्थात् श्रावक आपत्ति में भी. देवादि की सहायता नहीं चाहते। स्वकृतं कर्म प्राणी को भोगने ही पड़ते हैं इसलिए वे अदानवृत्ति वाले होते हैं, किसी के आगे दीनता नहीं दिख ते ।
औपंपातिक सूत्र'४१ में भी श्रावकों के लिये यही. विशेषण मिलता है। इसे यह सिद्ध होता है कि लौकिक स्वार्थ के लिये भी श्रावक देवों को नहीं मानता, न किसी के आगे दीनता ही दिखाता है। 'इस तरह लौकिक फल के लिये भी की गई. देवादि की पूजा दूसरों में मियात्व पैदा करती हैं और फलस्वरूप भविष्य में दुर्लभवोधि का कारण होती हैं । जिनशासन की भी इसमें लघुता मालूम होती है इसलिये इसका त्याग ही करना चाहिये । सच्चा सम्यक्त्वधारीजिनोक्न कर्मसिद्धान्त,पर विश्वास रखता है । 'कडाण कम्माण न-मोख अत्थि सिद्धान्त पर उसकी अगाध श्रद्धा होती है । वह अपना सारा पुरुषार्थ जिनोक्न कर्तव्यों में, ही लगाता है, फिर वह लौकिक फल के लिये भी ऐसे कार्य क्यों करने लगा। वह जिन्द-शासन को प्रभावना करना चाहता है जब
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