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- श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग १३१ और प्रतिकूल उपसर्गों को समभाव से सहन करता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
(६) जो साधु चार विकथा, चार कपाय, चार संज्ञा तथा दो ध्यान अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़ देता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
(७)ोपांच महावत, पांच इन्द्रियों के विषयों का त्याग, पांच समिति, पांच पाप क्रियाओं का त्याग इन बातों में जो. साधु निरन्तर उपयोग रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता,!
(e); लेश्या, छ काया और आहार के छ कारणों में जो साधु हमेंशा उपयोंग रखता है वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता। *."(6) सांत कोर की पिएडेपणायों और सात प्रकार के भये स्थानों में जो साधु सदा उपयोग रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
(१०) जातिमंद यादि पाठ प्रकार के मद स्थानों में, नों 'प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति में और दस प्रकार के यति.धर्म में जो
साधु सदा उपयोंग रखता है वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता। ..११) जो साधु-श्रावक्र की ग्यारह पडिमाओं का यथावत् ज्ञान करके उपदेश देता है और बारह भिक्खुपडिमाओं में सदा उपयोग रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
(१२) जो साधु तेरह प्रकार के क्रिया स्थानों को छोड़ देता है, एकेन्द्रियादि चौदह प्रकार के प्राणी समूह (भूतग्राम की रक्षा करता है. तथा पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक देवों का ज्ञान रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। :::: . (१३) जो साधु सूयगडांग पत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययनों का ज्ञान रखता है, संतरह प्रकार के असंयम को छोड़ कर पृथ्वीकोयादि की रक्षा रूप सतरह प्रकार के संयम का
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