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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला " S
६१७° उत्तराध्ययन सूत्र के चरणविहि नामक ३१ वें अध्ययन की २१ गाथाएं
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प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ शरीर का सम्बन्ध लगा हुआ है । खाना, पीना, हिलना, चलना, उठना, बैठना आदि प्रत्येक शारीरिक क्रिया के साथ पुण्य पाप लगा हुआ है, इसलिए इन क्रियाओं को करते समय प्रत्येक प्राणी को शुद्ध और स्थिर उपयोग रेखना चाहिये । उपयोग की शुद्धता के लिये उत्तराध्ययन सूत्र के इकतीस अध्ययन में चारित्र विधि का कथन किया गया है। उसमें इक्कीस गाथाएं हैं उनका भावार्थ नीचे दिया जाता है ।
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१) भगवान् फरमाने लगे - भन्यो ! जीव के लिये कल्याण कारी तथा उसे सुख देने वाली और संसार सागर से पार 'उतारने वाली अर्थात् जिसका आचरण करके अनेक जीव इस 'भवसागर को तिर कर पार हो चुके हैं ऐसी चारित्र विधि का मैं 'कथन करता हूँ । तुम उसे ध्यान पूर्वक सुनो।
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(२) मुमुक्षु को चाहिये कि वह एक तरफ से निवृत्ति करे और दूसरे मार्ग में प्रवृत्ति करे । इसी बात को स्पष्ट करते हुए शास्त्र"कार. कहते हैं कि हिंसादि रूप असंयम से तथा प्रमत्तः योग से
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निवृत्ति करें और संयम तथा अप्रमत्त योग में प्रवृत्ति करे । ५ (३) पाप कर्म में प्रवृत्ति कराने ले दो पाप हैं। एक रोग और दूसरा द्वेष | जो साधु इन दोनों को रोकती है अर्थात् इनका उदय ही नहीं होने देता अथवा उदय में आये हुए को विफल कर देता - है वह चतुर्गति रूपः संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
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। (४) जो साधु तीन दण्ड, तीन गारव और तीन शल्य छोड़ ' देता है वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता ।
: - (५) जो साधु देव मनुष्य और पशुओं द्वारा किये गये कुल