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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चंठा भाग १ह रहता है तथा सूत्रार्थ को अच्छी तरह जानता है वही सचा भिन्नु है।
(१६) जो साधु भण्डोपकरण--आदि-.-उपधि में किमी प्रकार की मूळ या गृद्धि नहीं रखता है, अज्ञात कुल की गोचरी करता है, चरित्र का घात करने वाले दोपों से अलगरहता है। खरीदने वैचने और संनिधि (वासी रखने) से विरक्त रहता है और सभी प्रकार के संगों से अलग रहता है वही सच्चा मिर्नु है ।
(१७)जो साधु चन्चलता रहित होता है तथा रसों में गृद्ध नहीं होता, 'अज्ञात कुलों से भिक्षा लेता है, जीवित रहने की भी अभिलाषा नहीं करता, ज्ञानादि गुणों में आत्मा को स्थिर करके छल रहित होता हुआ ऋद्धि, सत्कार, पूजा आदि की इच्छा नहीं करता है वही सचा.भिक्षु है। . (१) जो दूसरे को कुशील (दुश्चरित्र). नहीं कहता, ऐमी कोई बात नहीं कहता जिससे दूसरे को क्रोधहो, पुण्य और पाप के स्वरूप को जानकर जो अपने को बड़ा नहीं मानता यही सच्चा मितु. है। ..(१६)जो जाति, रूप, लाभ तथा श्रुत का मद नहीं करता।
सभी मद- छोड़कर धर्मध्यान में लीन रहता है वही सच्चा भिक्षु है। : : (२०) जो महामुनि, धर्म का शुद्ध उपदेश देता है, स्वयं,धर्म में स्थिर रहकर दूसरे को स्थिर करता है । अंबज्या लेकर कुशील के कार्यारम्भं आदि को छोड़ देता है, निन्दनीय परिहास तथा कुचेष्टाएं नहीं करता वही सचा मितु है
: (२१) उपरोक्त गुणों वाला साधु अपवित्र और नश्वर देवास को छोड़कर शाश्वत मौन रूपी-हित में अपने को स्थित करके जन्म “मरण के बन्धन को तोड़ देता है और ऐसी गति में जाता है जहाँ से वापिस आना नहीं होता' अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
(दशवकालिक १० वा अध्ययन )