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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
विक्रम संवत्-११४ में हुआथा । वज्रमुनि की आयु ८८ वर्ष की थी। ; वज्रस्वामी ने बचपन में भी माता के प्रेम की उपेक्षा कर संघ का बहुमान किया अर्थात् माता द्वारा दिये जाने वाले खिलौने
आदि न लेकर संयम के चिन्ह भूत रजोहरण को लिया। ऐसा करने से माता का मोह भी दूर हो गया जिससे उसने दीक्षा ली
और आपने भी दीक्षा लेकर शासन के प्रभाव को दूर दूर तक फैलाया यह उनकी पारिणामिकी बुद्धि थी। .
(आवश्यक कथा) (१६) चरणाहत-एक राजा था । वह तरुण था । एक समय छुछ तरुण सेवकों ने मिलकर राजा से निवेदन किया-देच ! आप नवयुवक हैं । इसलिए आपको चाहिये कि नवयुवकों को ही आप अपनी सेवा में रखें। वे आपके सभी कार्य बड़ो योग्यता पूर्वक सम्पादित करेंगे । बूढ़े आदमियों के केश पककर सफेद हो जाते हैं. उनका शरीर जीर्ण हो जाता है। वे लोग आपकी सेवा में रहते हुए शोभा नहीं देते।
नवयुवकों की बात सुनकर उनकी बुद्धि की परीक्षा करने के लिये राजा ने उनसे पूछा-यदि कोई मेरे सिर पर पांव का प्रहार करे तो उसे क्या दण्ड देना चाहिये ? नवयुवकों ने कहामहाराज ! तिल जितने छोटे छोटे टुकड़े करके उसको मरवा देना चाहिये । राजा ने यही प्रश्न वृद्ध पुरुषों से किया। . वृद्ध पुरुषों ने कहा-स्वामिन् ! हम विचार कर जवाब देंगे। फिर वे सभी एक जगह इकट्ठे हुए और विचार करने लगे -. सिवाय रानी के दूसरा कौन पुरुष राजा के सिर पर पांव का प्रहार कर सकता है । रानी तो विशेष-सन्मान करने के लायक होती है । इस प्रकार सोचकर वृद्ध पुरुष राजा की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने कहा स्वामिन् ! उसका विशेष सत्कार